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योगवाशिष्ठ।

विभाग कलना नहीं फुरती और जो आत्मतत्त्व में ही स्थित है उसको समाहित असमाहित क्या कहिये? समाधि और उत्थान का वास्तव में कुछ भेद नहीं। आत्मतत्त्व सदा अपने आप में स्थित है, द्वैतभेद कुछ नहीं तो समाहित असमाहित क्या कहिये?

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे समाधिनिश्चयवर्णनन्नाम
सप्तपञ्चाशतमस्सर्गः ॥ ५७ ॥

सुरघ बोले, हे राजन्! निश्चय करके अब तुम जागे हो और परमपद को प्राप्त हुए हो। तुम्हारा अन्तःकरण पूर्णमासी के चन्द्रमावत शीतल हुआ है और परम शोभा से तुम्हारा मुख शोभित होकर तुम ब्रह्मलक्ष्मीसम्पन्न और परमानन्द से पूर्ण हुए हो। तुम्हारा हृदयकमल शीतल और स्निग्ध विराजमान है और निर्मल तुम्हारी विस्तृत गम्भीरता मुझको प्रकट भासती है। निर्मल शरत्काल के आकाशवत् तुम्हारा हृदय भासता है और अहंकाररूपी मेघ तेरा नष्ट हुआ है। हे राजन्! अब तुमको सर्वत्र स्वस्थ और सर्वथा सन्तुष्टता है और किसी में राग नहीं। तुम वीतराग होकर विराजते हो, सार असार को तुमने भली प्रकार जाना है और उसे जानकर असार संसाररूपी समुद्र से पार हुए हो और महाबोध को तुमने ज्यों का त्यों जानकर अखण्ड स्थिति पाई है और भाव-अभाव पदार्थ दोनों को तुम जानते हो। तुम जगत् के सम असम पदार्थों से मुक्त हो और तुम्हारा आशय पवित्र और मुदिता प्राप्त हुई है। इष्ट, अनिष्ट, ग्रहण, त्याग तुम्हारा निवृत्त हुआ है, राग द्वेष और तृष्णारूपी बादलों से रहित निर्मल आकाशवत् तुम शोभते हो और अपने आपसे तृप्त हुए हो कुछ इच्छा तुमको नहीं है। सुरघ बोले, हे मुनीश्वर! इस जगत् में ग्रहण करने योग्य वस्तु कोई नहीं। जो कुछ दृश्य पदार्थ हैं वे सब आभासरूप हैं तो ग्रहण किसको कीजिये! और जो कहिये कि ग्रहण करने योग्य नहीं इससे त्याग करिये तो आभासरूप पदार्थों का त्याग क्या कीजिये और ग्रहण क्या कीजिये क्योंकि है नहीं सब तुच्छ पदार्थ हैं जैसे सूर्य की किरणों में जल


  • "संयोगनाशको गुणो विभागः।"