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उपशम प्रकरण।

भासता है तो उस जलाभास का कौन अङ्ग ग्रहण कीजिये और कौन अङ्ग त्याग कीजिये, तैसे ही यह जगत् भी है। हे मुनीश्वर! जगत् के कोई पदार्थ तुच्छ हैं और कोई अतुच्छ हैं। जो थोड़े काल में नष्ट हो जाते हैं सो तुच्छ हैं और जो चिरकालपर्यन्त रहते हैं वे अतुच्छ हैं परन्तु दोनों काल से उपजे हैं अब मैंने अकालरूप को देखा है इससे दोनों तुल्य हो गये हैं फिर इच्छा किस की करूँ? हे मुनीश्वर! जो पदार्थों को रमणीय जानते हैं वे उनकी इच्छा करते हैं पर त्रिलोकी में रमणीय पदार्थ कोई नहीं, सब तुच्छ और नाशरूप हैं और अविचार से जीवों को भासते हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध जो इन्द्रियों के विषय हैं वे भी सब असाररूप हैं। स्त्री को बड़ा पदार्थ जानते हैं पर वह भी देखनेमात्र सुन्दर है और भीतर से रक्त, मांस, विष्ठा और मूत्र का थैला बना हुआ है-इसमें भी कुछ सार नहीं। पर्वत बड़े पदार्थ हैं सो पत्थर बहे हैं, समुद्र जल है वनस्पति काष्ठ-पत्र हैं और इनसे आदि जो पदार्थ हैं वे सब आपातरमणीय हैं विचार बिना सुन्दर भासते हैं। इनकी जो इच्छा करते हैं वे अपने नाश के निमित्त करते हैं-जैसे पतङ्ग दीपक की इच्छा करता है सो अपने नाश के निमित्त करता है और हरिण राग की इच्छा से नाश को प्राप्त होता है तैसे ही जो विषयों की तृष्णा करते हैं वे अपने नाश को करते हैं। इससे विचार से रहित जो अज्ञानी हैं वे पदार्थों को रमणीय जानकर अपने नाश के निमित्त इच्छा करते हैं और जो समदर्शी ज्ञानवान् हैं वे उन्हें अरमणीय जानकर किसी जगत के पदार्थ की इच्छा नहीं करते। जैसे सूर्य के उदय हुए अन्धकार का अभाव होता है तैसे ही जब पदार्थों का राग उठ गया तब तृष्णा किसमें रहे? हे साधो! राग द्वेष इच्छा ग्रहण त्याग जो कुछ विचार हैं उन सबसे रहित शुद्ध आत्मतत्त्व में स्थित हो। बहुत कहने से क्या है जिस पुरुष के मन से वासना नष्ट हो गई है वह उपशमवान् कल्याणमूर्ति परमपद को प्राप्त हुआ और संसारसमुद्र से तर गया है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे सुरघपरघनिश्चयवर्णन-
न्नामाष्टपञ्चाशत्तमस्सर्ग ॥ ५८ ॥