पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७२४

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योगवाशिष्ठ।

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार सुरघ और परघ जगत् को भ्रमरूप विचारते परस्पर गुरु जानकर पूजते रहे, फिर कुछ दिन उपरान्त पर चला गया। हे रामजी! इनका जो परस्पर संवाद तुमको सुनाया है सो परमबोध का कारण है। इस विचार के क्रम से बोध की प्राप्ति होती है। तीक्ष्ण बोध से जब विचार करोगे तब अहंकाररूपी बादल का अभाव हो जावेगा और शुद्ध हृदयरूपी आकाश में आत्मरूपी सूर्य का प्रकाश हो जावेगा। इससे परमपद के लाभ के निमित्त अहंकाररूपी बादल के अभाव का यत्न करो। आत्मा जो सत्य और सब आनन्दों की सम्पदा चिदाकाश है उसमें स्थिति पावोगे। हे रामजी! जो पुरुष नित्य अन्तर्मुखी अध्यात्ममय है और नित्य चिदानन्द में चित्त को लगाता है वह सदा सुखी है-उसको शोक कदाचित् नहीं होता और जो पुरुष आत्मपद में स्थित हुआ है वह बड़े व्यवहार करे और राग द्वेष सहित दृष्टि आवे तो भी उसको कुछ कलङ्क नहीं होता। जैसे कमल जल में दृष्टता है तो भी ऊँचा रहता है, जल उसको स्पर्श नहीं करता, तैसे ही ज्ञानवान् को व्यवहार का राग द्वेष हृदय में स्पर्श नहीं करता। हे रामजी! जिसका मन शान्त हुआ है उसको संसार के इष्ट अनिष्ट पदार्थ चला नहीं सकते। जैसे सिंहों को मृग दुःख दे नहीं सकते, तैसे ही ज्ञानवान् को जगत् के पदार्थ दुःख नहीं दे सकते। जिस पुरुष को आत्मानन्द प्राप्त हुआ है उसको विषयों की तृष्णा नहीं रहती और न वह विषयों के निमित्त कदाचित् दीन होता है। जैसे जो पुरुष नन्दनवन में स्थित होता है वह कण्टकों के वृक्ष की इच्छा नहीं करता तैसे ही ज्ञानवान् जगत् के पदार्थों की इच्छा नहीं करता। हे रामजी! जिस-जिस पुरुष ने जगत् का अविद्यारूप जानकर त्याग किया है उसके चित् को जगत् के पदार्थ दुःख दे नहीं सकते। जैसे विरक्तचित्त पुरुष की स्त्री मर जावे तो उसको दुःख नहीं होता तैसे ही ज्ञानवान् के चित में भोगों की दीनता ऐसे नहीं उपजती उसे नन्दनवन में कण्टक का वृक्ष नहीं उपजता। जिस पुरुष को आत्मबोध हुआ है और संसार का कारण मोह निवृत्त हुआ है वह जगत् का कार्यकर्ता दृष्टि आता है परन्तु वह कार्य उसको स्पर्श