पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७२५

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उपशम प्रकरण।

नहीं करते-जैसे आकाश में अन्धकार दृष्टि आता है परन्तु आकाश को स्पर्श नहीं करता। हे रामजी! अविद्या के निवृत्ति का कारण विद्या है और किसी उपाय से निवृत्ति नहीं होती। जैसे प्रकाश बिना तम निवृत्त नहीं होता वैसे ही विचार बिना अविद्या निवृत्ति नहीं होती। अविचार का नाम अविद्या है और विचार का नाम विद्या है, जब अविद्या नष्ट होगी तब विषय भोग स्वाद न देवेंगे और आत्मानन्द से संतुष्टवान् रहोगे। हे रामजी! ज्ञानवान् को विचार के कारण इन्द्रियों के व्यवहार अन्धा नहीं करते-जैसे जल में मछली रहती है उसको जल अन्धा नहीं कर सकता पर और अन्धे हो जाते हैं। जब ज्ञानरूपी सूर्य उदय होता है तब अज्ञानरूपी रात्रि निवृत्त हो जाती है, चित्त परमानन्द को प्राप्त हो जाता है और रागद्वेषरूपी निशाचर नष्ट हो जाता है। तब फिर मोह को नहीं प्राप्त होता। जिसके हृदय आकाश में आत्मज्ञानरूपी सूर्य उदय हुआ है उसका जन्म और कुल सफल होता है। जैसे पूर्णमासी का चन्द्रमा अपने अमृत को पाकर अपने में ही शीतल होता है तैसे ही जो पुरुष आत्मचिन्तना में अभ्यास करता है वह शान्ति पाता है। हे रामजी! बुद्धि श्रेष्ठ और सतशास्त्र वही है जिसमें संसार से वैराग और आत्मतत्त्व की चिन्तना उपजे। जब जीव आत्म पद को पाता है तब उसका सब क्लेश मिट जाता है और जिसकी आत्म चिन्ता में रुचि नहीं वे महाअभागी हैं। ऐसे पुरुष चिर पर्यन्त कष्ट पावेंगे और जन्मरूपी जङ्गल के वृक्ष होंगे। हे रामजी! जीवरूपी बल अनेक आशारूपी फाँसियों से बँधा है, जरा अवस्थारूपी पत्थरों के मार्ग से जर्जरीभूत होता है, भोगरूपी गढ़े में गिरा है और कर्मरूपी भार को लिये जन्मरूपी जङ्गल में भटककर कर्म कीचड़ में फँसा हुआ राग द्वेषरूपी मच्छरों से दुःखी होता है स्नेहरूपी रथ को पकड़ के खैंचता है और पुत्र, आदिक की ममतारूपी कीचड़ में गोते खाता है और मोह संसाररूपी मार्ग में कर्मरूपी रथ के साथ लगता है और ऊपर से अज्ञानरूपी तप्तता से जलता है और सन्तजन और सत्शास्त्ररूपी वृक्ष की छाया नहीं पाता। हे रामजी! जीवरूपी ऐसा बैल है। उसे निका-