पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७२६

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योगवाशिष्ठ।

लने का यत्न करो जब तत्त्व का अवलोकन करोगे तब चित्तभ्रम नष्ट हो जावेगा। हे रामजी! संसाररूपी समुद्र के तरने का उपाय सुनो। महापुरुष और सन्तजन मल्लाह हैं, उनका युक्तिरूपी जहाज है उससे संसाररूपी समुद्र तर जावेगा, और उपाय कोई नहीं यही परम उपाय है। जिस देश में सन्तजन रूपी वृक्ष नहीं है और जिनकी फलों सहित शीतल छाया नहीं है उस निर्जन मरुस्थल में एक दिन भी न रहिये। हे रामजी! सन्तजनरूपी वृक्ष हैं, जिनके स्निग्ध और शीतल वचनरूपी पत्र हैं, प्रसन्न होना सुन्दर फूल है और निश्चय उपदेशरूपी फल है। जब यह पुरुष उनके निकट जावे तब महामोहरूपी तप्तता से छूटेगा और शान्ति पाकर तृप्त होगा। तभी तीनों को पाकर अघावेगा और सब दुःखों से मुक्त होगा। हे रामजी! अपना आपही मित्र है और अपना आपही शत्रु हैं। अपने आपको जन्मरूपी कीचड़ में न डाले। जो देह में अहंभावना से विषयों की तृष्णा करता है वह अपना आपही नाश करता है। जो देह भाव को त्यागकर आत्म अभ्यास करता है वह अपना आप उद्धार करता है और वह अपना आपही मित्र है और जो आपको संसारसमुद्र में डालता है यह अपना आपही शत्रु है। हे रामजी! प्रथम यह विचारकर देखे कि जगत् क्या है, कैसे उत्पन्न हुआ है और कैसे निवृत्त होगा? मैं कौन हूँ, सत्य क्या है और असत्य क्या है? ऐसे विचार कर जो सत्य हैं उसको अङ्गीकार करे और जो असत्य है उसका त्याग करे। हे रामजी! न धन कल्याण करता है न मित्र बान्धव और न शास्त्रकल्याण करते हैं, अपना उद्धार आपसे होता है। इससे तुम अपने मन के साथ मित्रता करो। जब वह दृढ़ वैराग्य और अभ्यास करे तब संसारकष्ट से छूटे। जब वैराग्य अभ्यास से तत्व के अवलोकन से अहंतारूप बेड़ी कटे तब संसारसमुद्र से तर जाता है। हे रामजी! जीवरूपी हाथी जन्मरूपी गढ़े में गिरा हुआ है, तृष्णा और अहंकाररूपी जंजीर से बँधा है और कामनारूपी मद से उन्मत्त है। जब उनसे छूटे तब मुक्त हो। हे रामजी, हृदयरूपी औषध से अनात्म अभिमान रूपी रक्त रोग हो गया है, जब विचाररूपी नेत्रों से उसको दूर कीजिये तब आत्मरूपी सूर्य का दर्शन हो। हे रामजी! और