पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७२७

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उपशम प्रकरण।

उपाय कोई न करो तो एक उपाय तो अवश्य करो कि देह को काष्ठ- लोष्टवत् जानकर इसका अभिमान त्यागो। जब अहं अभिमानरूपी बादल नष्ट होगा तब आपही आत्मरूपी सूर्य प्रकाश आवेगा। जब अहंकार- रूपी बादल लय होगा तब आत्मतत्त्वरूपी सूर्य भासेगा, वह परमानन्द- स्वरूप है, सुषुप्तिरूप मौन है अर्थात् केवल अद्वैत तत्त्व है, वाणी से कहा नहीं जाता अपने अनुभव से आपही जाना जाता है। हे रामजी! सब जगत् अत्यन्त आत्मा है। जब चित्त का दृढ़ परिणाम उसमें हो तब स्थावर जङ्गमरूप जगत् में वही दिव्यदेव भासेगा और वासना सब निवृत्त हो जावेगी। तब अनुभव से केवल परमानन्द आत्मतत्त्व दिखाई देगा सो स्वरूप पूर्ण और अद्वैत है। सब जगत् का त्याग कर उसी के पाने का यत्न करो।

इति श्री योगवाशिष्ठे उपशमनप्रकरणे कारणोपदेशो
नामैकोनषष्टितमस्सर्गः ॥ ५९ ॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! मन से मन को छेदो और अहं ममभाव को त्यागो। जबतक मन नष्ट नहीं होता तब तक जगत् के दुख निवृत्त नहीं होते। जैसे मूर्ति का सूर्य मूर्ति के नष्ट हुए बिना अस्त नहीं होता- जब मूर्ति नष्ट हो तब सूर्य का आकार भी दूर हो तैसे ही जब मन नष्ट हो तब संसार के दुःख नष्ट हो जावेंगे-अन्यथा नष्ट न होंगे। हे रामजी! जैसे प्रलयकाल में अनन्त दुःख होता है तैसे ही मन के होने से अनन्त दुःख होते हैं और जैसे मेघ के वर्षने से नदी बढ़ती जाती है तैसे ही मन के जागे से आपदा बढ़ती जाती है। इसही पर एक पुरातन इतिहास मुनीश्वर कहते हैं सो परस्पर सुहृदों का हेतु है। हे रामजी! सह्याचल सब पर्वतों में बड़ा पर्वत है। उस पर फूलों के समूह और नाना प्रकार के वृक्ष हैं, जल के भरने चलते हैं और मोतियों के स्थान और सुवर्ण के शिखर हैं। कहीं देवताओं के स्थान हैं और कहीं पक्षी शब्द करते हैं। नीचे क्रान्त रहते हैं ऊपर सिद्ध, देवता और विद्याधर रहते हैं, पीठ में मनुष्य रहते हैं और नीचे नाग रहते हैं-मानो सम्पूर्ण जगत् का गृह यही है। उसके उत्तर दिशा में सुन्दर वृक्ष और फूलों से पूर्ण तालाब है