पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७३३

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उपशम प्रकरण।

त्यागकर जीव शयन करता है और स्वप्न में अनेक सुख दुःख भोगता है तैसे ही वह सब कुछ करता है। चित्त के करने से कर्त्ता है, चित्त के न करने से ही अकर्त्ता है। शरीर से करना सो करना नहीं और शरीर से न करना सो न करना नहीं। ब्रह्महत्या से भी असंयुक्त पुरुष को कुछ पाप नहीं लगता और जो अश्वमेधयज्ञ करे तो कुछ पुण्य नहीं होता। जिसके चित्त से सब आासक्तता दूर हुई है वह पुरुष मुक्तस्वरूप है और धन्य-धन्य है जिसका चित्त आसक्त है वह बन्ध और दुःखी है। जो पुरुष आसक्तता से रहित है वह आकाश की नाई निर्मल है और समभाव, एक अद्वैत आत्मतत्त्व में स्थित है।

इति श्री योगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे अन्तरासङ्गविचारो
नाम द्विषष्टितमस्सर्गः ॥ ६२ ॥

रामजी ने पूछा, हे भगवन्! संग किसको कहते हैं? बन्धरूप संग किसको कहते हैं, मोक्षरूप असंग किसको कहते हैं और संग बन्धनो से मुक्त किसका नाम है और किस उपाय से मुक्त होता है वह कहिये। वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! देव और देही का जो संग है उसका त्याग करो और उसके साथ जो मिलकर करता है और देहमात्र में अपना विश्वास करता है कि इतना ही मैं हूँ, इसी को संग और बन्ध कहते हैं। हे रामजी! आत्मतत्व अनन्त है। देहमात्र में अहंभावना से आपको उतना ही मानना और उसमें अभिमान करके सुख की इच्छा करना इसी का नाम बन्ध है और इसी को संग कहते हैं। जिसको यह निश्चय हुआ है कि सर्व आत्मा ही है, मैं किसकी इच्छा करूँ और किसका त्याग करूँ, वह इस असंग से जीवन्मुक्त कहाता है। अथवा न मैं हूँ, न यह जगत् है, सर्वभाव अभाव को त्यागकर अद्वैतसत्ता में स्थित होने का नाम जीवन्मुक्त है। जिसे न कर्मों के स्थाग की इच्छा है, न करने की इच्छा है और हृदय से वर्तृत्वभाव नहीं इस संग का जिसने त्याग किया है वह संग कहाता है। हे रामजी! जिसको आत्मतत्त्व में निश्चय है और जो राग, द्वेष, हर्ष, शोक के वश नहीं होता है वही असंग कहता है। जिसने सर्व कर्मों का फल यह समझकर