पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७३८

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योगवाशिष्ठ।

वान् के चित्त को रागद्वेष स्पर्श नहीं करते। जो आत्मध्यानी है और जो परमबोध का साक्षात्कार होकर कलनामल से मुक्त हुआ है वह पुरुष असंसक्त कहाता है। हे रामजी! जो आत्मरामी पुरुष हैं उनकी आत्म- ज्ञान के अभ्यास से संसक्ता निवृत्त हो जाती है अन्यथा संसक्तभाव निवृत्त नहीं होता। जब चित्त परिणाम आत्मा की ओर होगा-जैसे चन्द्रमा परिणाम के वश से अमावस्या को सूर्यरूप हो जाता है तब चित्त दृढ़ परिणाम के वश से आत्मारूप हो जावेगा। जब चित्त चैत्यभाव से हीन होता है तब क्षीणचित्त कहाता है और शान्त कलना कहाता है। तब जाग्रत भी सुषुप्तिरूप हो जाता है। उस अवस्था में जो कुछ क्रिया करता है सो फल का आरम्भ नहीं होती, क्योंकि वह तो निरहंकार हो जाता है जैसे यन्त्री की पुतली अर्हकार से रहित चेष्टा करती है और संवेदन से रहित है उसको कोई दुःख नहीं होता, तैसे ही निरहंकार निःसंवेदन पुरूष निर्दुःख और निर्लेप कहाता है। हे रामजी! इष्ट-अनिष्ट, भाव अभावरूपी जगत चित्त में होता है। जब चित्त आत्मभाव को प्राप्त हुआ तब किससे किसको बन्धन हो तब तो सब आत्मतत्त्व होता है। जैसे नट सर्व स्वाँग को धारता है और अपना अभिमान किसी से नहीं करता तैसे ही सुषुप्ति बोध पुरुष जगत् की क्रिया करता है और बन्धवान् नहीं होता, जीवन्मुक्त होकर स्थित होता है। हे रामजी! सुषुप्ति बोध का आश्रय करके जगत की क्रिया करो पर क्रिया, कर्म, कर्त्ता त्रिपुटी की भावना से रहित हरे तब तुमको कुछ दुःख न होगा ग्रहण और त्याग में अभिमान न होगा यथाप्राप्त में स्थित होगे। सुषुप्तिबोध में जो स्थित है सो कर्त्ता हुआ भी कुछ नहीं करता। ऐसे निश्चय को धार करके जैसे इच्छा हो तैसे करो। हे रामजी! ज्ञानवान् की चेष्टा बालकवत् होती है जैसे बालक अभिमान से रहित पालने में अङ्गों को हिलाता है तैसे ही ज्ञानवान् अभिमान से रहित कर्म करता है और फल का स्पर्श उसे नहीं होता। जब चित्त अचित्तरूप हो जाता है तब जाग्रत् जगत् सुषुप्तिरूप हो जाता है। और जो कुछ क्रिया करता है वह स्पर्श नहीं करती। हे रामजी! जब जगत् से सुषुप्ति दशा होती है तब हृदय शीतल हो जाता है, रागद्वेष