पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७३९

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उपशम प्रकरण।

कुछ नहीं फुरते और आत्मानन्द से पूर्ण होता है और जैसे पूर्णमासी का चन्द्रमा शोभता है तैसे ही वह शोभता है। जो सुषुप्तिबोध में स्थित है वह महातेजवान् होता है और आत्मानन्द से पूर्ण चन्द्रमा की नाई हो जाता है। हे रामजी! जो सुषुप्तिबोध में स्थित है वह संसार के किसी क्षोभ से चलायमान नहीं होता-जैसे पर्वत सर्वदा काल में क्षोभायमान नहीं होता और भूकम्प में सब वृक्षादिक चलायमान होते हैं पर अस्ताचल पर्वत कम्पायमान नहीं होता, तैसे ही ज्ञानवान् चलायमान नहीं होता। जैसे पर्वत सब काल में सम रहता है और तरु उनके गिर पड़ता है पर्वत ज्यों का त्यों रहता है तैसे ही ज्ञानवान् अनेक प्रकार की क्रिया में सम रहता है। हे रामजी! ऐसी सुषुप्तिदशा अभ्यासयोग से प्राप्त होती है। जब यह दशा प्राप्त होती है तब उसको तत्त्ववेत्ता तुरीयापद कहते हैं सो परमानन्दरूप है उसमें सब दुःख नष्ट हो जाते हैं और असंसक्त हो जाता है। जब मन का मननभाव निवृत्त हो जाता है तब ज्ञानवान् को परम सुख उदय होता है और उससे वह परमानन्द हो जाता है। जो इस संसार को लीलारूप देखता है और सर्वशोक से रहित निर्भय होता है उससे संसारभ्रम दूर हो जाता है। जब तुरीयापद में प्राप्त होता है तब संसार में फिर नहीं गिरता। जो यत्नवान् पुरुष परमपावनपद में स्थित हुए हैं वे संसार की अवस्था को देखकर हँसते हैं। जैसे पहाड़ पर बैठा पुरुष नगर को जलता देखकर हँसता है तैसे ही ज्ञानवान् आत्मानन्द को पाकर संसार के कार्यों में दुःख जानकर हँसता है। हे रामजी! तुरीया अवस्था में स्थित होने से अविनाशी होता है और आत्मरूप आत्मबोध से आनन्दित है। जब ऐसे तुरीयापद को प्राप्त होता है तब जन्ममरण के बन्धन से मुक्त होता है और अभिमान आदिक कलना से रहित परमज्योति में लीन होता है। जैसे नमक की गोली समुद्र में जलरूप हो जाती है तैसे ही वह आत्मरूप हो जाता है।

इति श्री योगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे संसक्तचिकित्सा
नाम पञ्चषष्टितमस्सर्गः ॥ ६५ ॥