पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७४०

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योगवाशिष्ठ।

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जब तक तुरीयापद में स्थित रहता है। तब तक केवल जीवन्मुक्त होता है और इससे उपरान्त विदेहमुक्त तुरीया- तीत है सो वाणी का विषय नहीं। जैसे आकाश को भुजा से कोई नहीं पकड़ सकता तैसे ही तुरीयातीत वाणी का विषय नहीं। तुरीया विगत से विश्रान्त दूर है विदेह मुक्त से पाता है। अब तुम कुछ काल ऐसी अवस्था में स्थित हो रहो, फिर परमानन्दपद में स्थित होना। हे रामजी! तुरीयावस्था में जो स्थित हुआ है वह निर्द्वन्द्वभाव को प्राप्त हुआ है। जब तुम अद्वैत दृष्टिरूप सुषुप्ति अवस्था में स्थित होगे तब जगत् के कार्य भी करते रहोगे और सदा पूर्ण रहोगे और तुमको उदय-अस्त का भाव कदाचित् न प्राप्त होगा। जैसे मूर्ति का लिखा चन्द्रमा उदय-अस्त को नहीं प्राप्त होता है तैसे ही तू उदय अस्तभाव को न प्राप्त होवेगा। हे रामजी! इस शरीर को अपना जानकर जीव रागद्वेष से जलता है और जिस पदार्थ का सन्निवेश होता है उसके नष्ट हुए नष्ट हो जाता है। जैसे मृत्तिका का अन्वय घर में होता है पर घट के नाश हुए मृत्तिका का नाश नहीं होता तैसे ही तुम भ्रम को मत अङ्गीकार करो। तुम सदा ज्यों के त्यों हो तुम्हारा सन्निवेश इसमें कुछ नहीं। इससे ज्ञानवान् देह के नाश हुए शोकवान् नहीं होता और देह के स्थित हुए सुखी भी नहीं होता, क्योंकि उसका देह के साथ कुछ सम्बन्ध नहीं। जो तत्त्वदर्शी पुरुष है वह यथाप्राप्ति में निर्दोष होकर विचरता है और अभिमानादिक विकारों से रहित निर्मल आकाशवत् है। जैसे शरत्काल की रात्रि में चन्द्रमा से आकाश निर्मल होता है तैसे ही मन की वृत्ति विकारों से रहित हो कर आत्मपद में स्थित होती है- संसार की ओर नहीं गिरती। जैसे योग, मन्त्र, तप और सिद्धि से सम्पन्न पुरुष आकाश में उड़ता जाता है वह फिर पृथ्वी पर नहीं गिरता। हे रामजी! तुम भी अपने प्रकृतभाव में स्थित होकर यथाप्राप्त क्रिया को करते निर्द्वन्द्व रहो। तुम भी अब स्वरूप के ज्ञाता हुए हो और परमपद में जागकर अपने स्वरूप को प्राप्त हुए हो इससे पृथ्वी में विशोकवान् होकर विचरो तब अनिच्छा से इच्छा को त्यागकर शीतल, प्रकाश, अन्धकार तप्त और मेघ से रहित शरत्काल के आकाशवत् निर्मल शोभोगे। हे रामजी! यह जगत्