पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७४१

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उपशम प्रकरण।

चिदानन्दस्वरूप है और आदि अन्त से रहित है। जो अहं त्वं आदिक अम से रहित है उसमें स्थित हो। आत्मा केवल अव्यक्त और चिन्ता से रहित है उसका शरीर के साथ सम्बन्ध कैसे हो? आत्मा आदिक नाम भी उपदेश व्यवहार के लिए कल्पे हैं, वह तो नामरूप भेद और भय से रहित अशब्दपद है और वही जगत्रूप होकर स्थित हुआ है-जगत् कुछ भिन्न वस्तु नहीं। जैसे जल तरङ्गरूप भासता है सो जल से भिन्न नहीं, तैसे ही आत्मा से भिन्न जगत् नहीं और जैसे समुद्र सब जलरूप है जल से कुछ भिन्न नहीं; तैसे ही सब जगत् आत्मरूप है भिन्न नहीं। जैसे जल और तरङ्ग में भेद नहीं और पट और तन्तु में भेद नहीं तैसे ही ब्रह्म और जगत् में भेद नहीं। हे रामजी! द्वैत कुछ वस्तु नहीं, परन्तु मैं तेरे उपदेश के निमित्त द्वैत अङ्गीकार करके कहता हूँ। यह जो शरीर है उसके साथ तेरा कुछ सम्बन्ध नहीं। जैसे धूप और बाया का सम्बन्ध नहीं होता और प्रकाश और तम इकट्ठे नहीं होते, तैसे ही आत्मा और देह का सम्बन्ध नहीं। देह जड़ और मलीन है और दृश्य असत्य है, आत्मा निर्मल, चेतन और सत्य है तो उसका देह से सम्बन्ध कैसे हो? जैसे शीत और उष्ण का परस्पर विरोध है तैसे ही आत्मा और देह का सम्बन्ध नहीं। जैसे वन में अग्नि लगने से जन्तु जलते हैं तैसे ही भ्रम दृश्यरूप देह में अहंभाव करके जीव जलते हैं। हे रामजी! जैसे दावाग्नि में कुबुद्धि नर जलबुद्धि करे तैसे ही अज्ञानी देह में आत्मबुद्धि करते हैं। जैसे मरुस्थल में सूर्य की किरणों में जल भासता है तैसे ही आत्मा में देहभाव रखते हैं। हे रामजी! चिदात्मा निर्मल, नित्य और स्वयंप्रकाश है और देह मलीन और अस्थि, मांस और रक्तमय है इसके साथ आत्मा का सम्बन्ध कैसे हो आत्मा में देह का अभाव है-केवल एक अद्वैततत्त्व अपने आपमें स्थित है उसमें द्वैतभ्रम कैसे हो? हे रामजी! स्वरूप से न कोई बन्ध है और न कोई मुक्त है, सर्वसत्ता एक आत्मतत्व स्थित है और भीतर बाहर सब वही है। मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ, मैं मूढ़ हूँ इस मिथ्यादृष्टि को दूर से त्यागो और आपको केवल आत्मरूप जानकर स्थित हो। यह दृश्य परम दुःख देनेवाला है और इसमें दुःख प्राप्त होवेगा। जैसे तृण और