पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७४२

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योगवाशिष्ठ।

पहाड़ की और पट और पत्थर की एकता नहीं होती तैसे ही आत्मा और शरीर की एकता नहीं होती। जैसे तम और प्रकाश का संयोग नहीं होता तैसे ही देह और आत्मा का संयोग नहीं होता और दोनों तुल्य भी नहीं होते। जैसे शीत और उष्णता और जड़ और चेतन की एकता नहीं होती तैसे ही शरीर और आत्मा की एकता नहीं होती। हे रामजी! शरीर जो चलता, बोलता है सो वायु के बल से चलता-बोलता है। आठ स्थानों में वायु के बल से, अक्षरों का उच्चार होता है-उर कण्ठ, शिर, जिह्वामूल, दन्त, नासिका, ओष्ठ, तालु यही आठ स्थान हैं। क, ख, ग, और घ-इन चारों का उच्चार कण्ठ में होता है। च, छ, ज और झ-इन चारों का तालु स्थान में उच्चार होता है। ट, ठ, ड और ढ़- इन वर्गों का मूर्धा में उच्चार होता है, त, थ, द और ध-इनका दातों में उच्चार होता है। प, फ, ब, भ और म-इन पाँचों का ओष्ठों में उच्चार होता है और ङ, ञ, न और ण-इनका नासिका में उच्चार होता है। जिह्वामूल का जिह्वा में उच्चार होता है और जिस पद के आदि हकार हो वह हृदय से बोला जाता है। आठों स्थानों में इन वर्गों का वायु से उच्चार होता है और सूक्ष्म नवस्वर का उच्चार होता है पर आत्मा इनसे निर्लेप होता है। जैसे बाँसुरी वायु से शब्द करती है तैसे ही इन पाँच तत्वों से शब्द होता है, इनमें आत्माभिमान करना महामूर्खता है। नेत्रादिक इन्द्रियाँ भी वायु से चेष्टा करती है, इससे इस भ्रम को त्यागकर आत्म-पद में स्थित हो-आत्मा आकाशवत् सबमें पूर्ण है। जैसे आकाश सब ठौर में पूर्ण है परन्तु जहाँ आदर्श होता है वहाँ प्रतिविम्ब होकर भासता है तैसे ही आत्मा सब ठौर में पूर्ण है परन्तु जहाँ हृदय होता है वहाँ भासता है। हे रामजी! जहाँ वासना से चित्तरूपी पक्षी जाता है वहाँ आत्मा को ऐसा अनुभव होता भासता है कि मैं यहाँ हूँ। जैसे जहाँ पुष्प होता है वहाँ सुगन्ध भी होती हैं, तैसे ही, जहाँ चित्त होता है यहाँ अहंभाव भी होता है। जैसे आकाश सब ठौर में है परन्तु जहाँ प्रतिविम्ब होता है वहाँ भासता है और जैसे जल सब पृथ्वी में है परन्तु भासता वहीं है जहाँ खोदा जाता है तैसे ही आत्मा सब ठौर पूर्ण