पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७४४

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योगवाशिहा अहं सो द्रष्टाभाव से सिद्ध होता है, इनके जो मध्य है सो परमात्मतत्व है सो नानारूप हो भासता है। बृहदारण्यक उपनिषद भोर वेदान्तशाबों में बहुत प्रकार से जीव का रूप कहा है। इससे भिन्न संवा शाम्रकारों में कल्पना कर कही हे सो वृथा कल्पना है। जब तक महंभाव से चित्त संस- रता है तब तक जगभ्रम होता है-जैसे जब तक सूर्य है तब तक प्रकाश होता है और जब सूर्य अस्त होता है तब प्रकाश जाता रहता है तैसे ही जब चित्त का प्रभाव हुमा तब जगभ्रम जाता रहता है। देह में प्रात्मा- बुद्धि करनी महामूर्खता है, क्योंकि यह अधःऊर्ध्वसंयोग है जो भात्मा का ऐसा संयोग न हो तो देह के नाश हुए भात्मा भी नष्ट हो जावे, पर देह के नाश हुए प्रात्मा का तो नाश नहीं होता। जैसे वृक्ष के पत्तों के नाश हुए वृक्ष का नाश नहीं होता और घट के नाश हुए भाकारा का नाशनहीं होता तैसे ही शरीर के नाश हुए प्रात्मा का नाश नहीं होता। जैसे पुरातन वन को त्यागकर पुरुष नूनन वन पहिरता है तैसे ही आत्मा पुरातन शरीर को त्यागकर नूतन शरीर अङ्गीकार करता है इसी का नाम मूर्ख मृत्यु कहते हैं, पर शरीर के नाश हुए प्रात्मा का नाश तो नहीं होता। हे रामजी!जिसका चित्त निर्वासनिक हुआ है उसका शरीर जब छूटता हेतब उसका चित्त चिदाकाश में लीन हो जाता है और जिसका चित्त वासना सहित है वह एक शरीर को त्यागकर मोर शरीर पाता है। जो देह नाश हुए अपना नाश मानता है वह मूर्ख है-जैसे स्थाणु में ज्ञान से वैताल भासता है और जैसे माता के स्तनों में मूर्ख बालक को वैताल भासता हे तैसे ही अजान से भात्मा मृत्यु भासती है जो इसका भनात्मतत्व नाश हो अर्थात् चित्त नाश हो जावे और फिर नफरे तो मानन्द हो । जो शरीर के नाश हुए मात्मा का नाश कहते हैं वे मूढ़ हैं और मिथ्या कहते हैं। जैसे कोई देश से देशान्तर जाता है तो उसका प्रभाव नहीं होता तैसे ही एक शरीर को त्यागकर और शरीर को प्राप्त होता है तो प्रात्मा का नाश नहीं होता। तैसे जल में तरङ्ग फुरके फिर लीन होकर और ठौर में जा फुरते हैं तैसे ही मात्मा एक शरीर को त्यागकर और को धारता है । जैसे पक्षी उड़ता-उड़ता दूर जाता