पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७४५

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उपशम प्रकरण। है सब दृष्टि नहीं माता परन्तु नाश नहीं होता तैसे ही शरीर के नाश हुए भात्मा और ठौर प्रकट होता है नाश नहीं होता। हे रामजी! वासना के वश से वह जीव एक शरीर को त्यागकर और शरीर को प्राप्त होता है। इसी प्रकार वासना के अनुसार जीव फिरता है। वासना- रूपी रस्सी से बँधा जीवरूपी वानर शरीररूपी स्थानों में भटकता है और कभी ऊर्ध्वलोक मौर कमी मनुष्यलोक में घटीयन्त्र की नाई भ्रमता है। हे रामजी । जीव के हृदय के जो वासना होती है उसी से जरा मृत्यु, जन्म भादि का दुःख पाता है और कर्मरूपी भार उठाकर कभी स्वर्ग, कभी पाताल और कभी मध्यस्थान में जाता है, शान्ति कदाचित् नहीं पाता। इससे हे रामजी! भविद्यारूपी जो संसार है इसको भ्रमरूप जानकर इसकी वासना को त्याग करो और अपने स्वरूप में स्थित हो। इतना कहकर वाल्मीकिजी बोले कि इस प्रकार जब वशिष्ठजी ने कहा तब सूर्य अस्त हुमा तो सभा स्नान के निमित्त उठी और परस्पर नमस्कार करके अपने-अपने स्थान को गये फिर रात्रि बिताके सूर्य की किरणों के निकलते ही था बैठे। इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे संसारयोगोपदेशो नाम पट्टपष्टितमस्सर्गः॥६६॥ वशिष्ठजी बोले, हे रामजी!मात्मा देह के उपजे से नहीं उपजता और नाश हुए से नष्ट नहीं होता इसलिये तुम निष्कलङ्कमात्मा हो तुमको देह के साथ सम्बन्ध कदाचित्त नहीं। जैसे कुल में फल और फल और घट में घटाकाश होता है सो परस्पर भिन्नरूप होते हैं, एक के नाश हुए दूसरे का नाश नहीं होता, तैसे ही देह के नाश हुए आत्मा का नाश नहीं होता। जो देह के नाश में अपना नाश मानता है वह मूर्ख जड़ है, उसमर्थचेतना को धिक्कार है। हे रामजी! जैसे स्थ, रस्सी और घोड़े का स्नेह से रहित संयोग होता है तेसे ही शरीर और इन्द्रियों का संयोग है। हे रामजी ! स्व टूटे से जैसे स्थवाहक की हानि नहीं होती तैसे ही देह और इन्द्रियों का नाश हुए मात्मा का नाश नहीं होता। जैसे पृथ्वी और पहाड़ पर जल के प्रवाह का संयोग होता है भोर वियोग भी होता है ,