पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

योगवाशिष्ठ। भासता है वह सब प्रसवरूप है और जो सत्य है वह सदा ज्यों का त्यों है । असवरूप दृश्य के निमित्त तुम क्यों वृथा मोह को पास होते हो असम्यकू दर्शन को त्यागकर सम्यकदर्शी हो । हे सुलोचन, रामजी! जो. सम्यकूदर्शी हैं वे मोह को नहीं प्राप्त होते दृश्य भौर दर्शन इन्द्रियों के साक्षित्वसम्बन्ध में अर्थात् विषयेन्द्रिय के साविरूप मानन्द का जिसे सुख है वह परब्रह्म कहाता है और अनुत्तम सुख से जो उस संवित् में स्थित है वह बानवान है उसको मोक्ष प्राप्त है । जो दृश्य दर्शन के मिलने में स्थित होता है उस भवानी को वह संवित् संसारभ्रम दिखाती है। दृश्य दर्शन में जो अनुभवसत्ता है वह सुख पात्मरूप है, जो दृश्य के साथ लगा है वह बन्ध है और जो दृश्य से मुक्त हो चैतन्य संवित् में स्थित है वह मुक्त कहाता है। हे रामजी | दृश्य-दर्शन के मध्य जो संवित है वह भनुभवरूप है, उस संवित् कामाश्रय करके जो दृश्य-दर्शन से मुक्त है वह संसारसमुद्र से तरेगा। वह सुषुप्तिवत् अवस्था है इसको प्राप्त हुभा परम प्रकाश को प्राप्त होता है और इसी को मुक्त कहते हैं। जो दृश्य दर्शन से मुक्त है वह मुक्त कहाता है और जो दृश्य दर्शन के साथ बँधा है वह बन्ध है। अन्य सबों का अनुभव करनेवाला भात्मा है, वह न स्थूल है, न अणु है, न प्रत्यक्ष है, न अप्रत्यक्ष है, न चेतन है, न जड़ है, न सत्य है, न असत्य है, न अहं है, न त्वं है, न एक है, न भनेक है, न निकट है, न दूर है, न अस्ति है, न नास्ति है, न प्राप्ति है, न प्राप्ति है, न सर्व है,न असर्व है, न पदार्थ, न अपदार्थ है, न पाश्च- भौतिक है, न अपाञ्चभौतिक है, जो कुछ दृश्य जाति है सो मन सहित षट् इन्द्रियों से सिद्ध होती है। जो इनसे अतीत है वह इनका विषय नहीं क्योंकि निष्किञ्चनरूप है। यह भी सब वही रूप है और ज्यों का त्यों जाने से सब मात्मारूप है । जगत् अनात्मारूप कुछ नहीं असम्यक्तान से ऐसे भासता है। यह जोकठिनरूप पृथ्वी, दवतारूप जल, स्पन्दरूप वायु उष्णतारूप अग्नि और अवकाशरूप भाकाश भासते हैं वे सब भात्म- रूप हैं। जो कुछ वस्तु-भवस्तुरूप जगत् भासता है सो भात्मसत्ता से भिन्न नहीं। भात्मा से मिन जगत् को मानना उन्मच चेष्टा हे मोर मूर्स