पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७४९

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उपशम प्रकरण मानते हैं। महात्मा पुरुषों को कालकलनारूप जगत् सब प्रात्मरूप है। कल्प से भादि खेकर अन्तपर्यन्त सब प्रात्मा का चमत्कार है, ऐसे जान- कर तुम अपने स्वरूप में स्थित हो और संसारसमुद्र से तर जाभो । इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशम प्रकरणे मोक्षस्वरूपोपदेशो नाम सप्तषष्टितमस्सर्गः॥ १७॥ वशिष्ठजी बोले, हे रामजी। यह जो मैंने तुझको देत के त्याग की विचारदृष्टि कहीं है इस विचार से अपना जो प्रात्मस्वभाव है सो प्राप्त होता है, जैसे बुद्धिमान को खोजने के अभ्यास से चिन्तामणि प्राप्त होती है। इसके उपरान्त एक और भी परम दृष्टि सुनो जिससे मनुष्य अचल मात्मस्वरूप को देखता है वह यह है कि मैं ही पाकाश, दिशा, सूर्य, अधः, ऊर्ध्व, देवता, दैत्य, प्रकाश, तम, मेघ, पर्वत, पृथ्वी, समुद्र, पवन, धलि, अग्नि प्रादिक स्थावर जङ्गम जगत हूँ। हे रामजी! सर्वजगत् मात्मा ही है तो अहं और लं से भिन्न और भनेक और एक कैसे हो । जिसके हृदय में ऐसा निश्चय होता है उसको सब जगत् भात्मरूप भासता है और वह पुरुष हर्षशोक नहीं पाता । सब जगत् मनोमात्र है तो अपना और पराया क्या कहिये ? वानवान को प्रात्मा से भिन्न कुछ नहीं भासता इससे वह हर्ष विषाद को नहीं प्राप्त होता । हे रामजी! अहंकार भी तीन प्रकार के हैं। दो प्रकार का तो सात्त्विक निर्मल है, तत्त्वज्ञान से प्रवर्त्तता और मोक्षदायक परमार्थरूप है, और तीसरा संसार दिखाता है। एक तो गई है जो तुमको कहा है कि सर्व में ही हूँ-मुझसे अन्य कुछ नहीं और दूसरा यह है कि परम अणु जो सूक्ष्म से भी भतिसूक्ष्म है सो साधीभूत अव्यक्तरूप में हूँ-ये दोनों मोक्षदायक हैं और तीसरा यह कि भापको नख-शीशपर्यन्त देहरूप जानना सो दुःखदायक और संसार का कारण है शान्तिसुख का कारण नहीं अथवा इन तीनों को त्यागकर स्थित हो यह सर्वसिद्धान्त का कारण है। जैसी तुम्हारी इच्छा हो तैसे करो पर प्रात्मा सबसे प्रतीत और सबसे परे है तो भी अपनी सत्ता से जगत् को पूर्ण कर रहा है और सबका प्रकाशक वही है। वह अपने अनुभव से सदावस्तु उदयरूप है और