पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७५

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वैराग्य प्रकरण।

मार डालता है, पर विषयरूपी सर्प जिसको काटता है वह अनेक जन्मपर्यन्त मारता ही चला जाता है। इससे परम दुःख का कारण विषय भोग ही है और परम विष है। हे मुनीश्वर! आरे से अङ्ग का काटना और वज्र से शरीर का चूर्ण होना मैं सहूँगा परन्तु विषय का भोगना मुझसे किसी प्रकार सहा नहीं जाता। यह तो मुझको दुःखदायक ही दृष्टि आता है। इससे वही मुझसे कहिये जिससे मेरे हृदय से अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश हो और जो न कहोगे तो मैं अपनी बाती पर धैर्यरूपी शिला घरके बैठा रहूँगा, परन्तु भोग की इच्छा न करूँगा। हे मुनीश्वर! जितने पदार्थ हैं वे सब नाशरूप हैं। जैसे बिजली का चमत्कार होके छिप जाता है और अञ्जलि में जल नहीं ठहरता वैसे ही विषयभोग और आयु नष्ट हो जाते हैं—ठहरते नहीं। जैसे काँटे से मछली दुःख पाती है वैसे ही भोग की तृष्णा से जीव दुःख पाते हैं। इससे मुझे किसी पदार्थ की इच्छा नहीं। जैसे कोई मरीचिका के जल को सत्य जान जलपान की इच्छा करे और दौड़े परजल नहीं पाता है। इससे मैं किसी पदार्थ की इच्छा नहीं करता हूँ।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे वैराग्य प्रकरणे सर्वान्तप्रतिपादन्नाम
चतुर्विंशतितमस्सर्गः॥२४॥

श्रीरामजी बोले कि हे मुनीश्वर! संसाररूपी गढ़े और मोहरूपी कीच में मूर्ख का मन गिर जाता है। उससे वह दुःख ही पाता है शान्तिवान् कभी नहीं होता। जब जरावस्था आती है तब जैसे पुरातन वृक्ष के पत्र पवन से हिलते हैं वैसे ही अङ्ग हिलते हैं और तृष्णा बढ़ जाती है। जैसे नीम का वृक्ष ज्यों-ज्यों वृद्ध होता है त्यों-त्यों कटुता बढ़ती है तैसे ही तृष्णा बढ़ती है। हे मुनीश्वर! जिस पुरुष ने देह इन्द्रियादिकों का आश्रय अपने सुख निमित्त लिया है वह मुर्ख संसाररूपी अन्धकूप में गिरता है और निकल नहीं सकता। अज्ञानीका चित्त भोग का त्याग कदाचित् नहीं करता, हे मुनीश्वर! जगत् के पदार्थों से मेरी बुद्धि मलीन हो गई है। जैसे वर्षाकाल में नदी मलीन होती है और जैसे मार्गशीर्ष मास में मञ्जरी सूख जाती है वैसे ही जगत् की शोभा देखते-देखते मेरी बुद्धि विरस हो गई है। जैसे जगत् का पदार्थ मूर्ख को रमणीय भासता है और जैसे पानी का