पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७५०

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७४२ योगवाशिष्ठ। किसी प्रमाण का विषय नहीं, अनुमान भादि प्रमाणों से रहित है और सर्वकाल सबको अपने प्रकाश से प्रकाराता है । यह जो दृश्यजगत् है वह सब मात्मा भगवान है और दृश्य, दर्शन, सद, मसद, सूक्ष्म, स्थूब सबसे प्रात्मा रहित है। वही सर्वरूप, सबकी वाणी कहने में भी वही भाता है और किसी से कहा भी नहीं जाता।जो नानात्व भासता हे वह भी उससे अन्य नहीं। मात्मा भादिक संबा भी शानों ने उपदेश के निमित्त कल्पी हैं। वह सर्वत्र, तीन कालों में स्थित और प्रकाशरूप है। सूक्ष्मभाव और स्थूलभाव से वही है और सब ठोर व्यापक अपने फुरने से जीवरूप हो भासता है। जब चित्तसंवित स्फूर्तिरूप होती है तब जीवरूप हो भासता है और फरने से रहित दैतकलना मिट जाती है- जैसे आकाश में पवन फुरता है तब उष्ण शीत हो भासता है तैसे ही फुरने से जीवादिक भासते हैं। भात्मा चेतन सर्वत्र व्यापकरूप है और कभी किसी भाव को प्राप्त नहीं होता। जैसे पदार्थ अपने भाव में स्थित है तैसे ही परमेश्वर भात्मा अपने स्वभाव में स्थित है परन्तु उसका भासना पुर्यष्टका में होता है। जैसे वायु विना धूलि नहीं उड़ती और भन्धकार में प्रकाश विना पदार्थ नहीं भासता तैसे ही पुर्यष्टका बिना भात्मा नहीं भासता पुर्यष्टका में प्रतिविम्बित भासता है। जैसे सूर्य के उदय हुए सर्वजीवों का व्यवहार होता है सूर्य के अस्त हुए से लीन हो जाता है पर सूर्य दोनों से भलेप है, वैसे ही भात्मा सबका प्रका- शक भौर निर्लेप है। शरीरों के व्यवहार होने और इष्टता में वह ज्यों का त्यों है, न उपजता है न विनाशता है, न वाञ्छा करता है, न त्यागता है, न मुक्त है, न बन्ध है, सर्वदा सर्वप्रकार ज्यों का त्यों एकरूप है । उस के भज्ञान से जीव अनात्माभाव को प्राप्त होता है-जैसे रस्सी में सर्प भासता है-और केवल दुःखों का कारण होता है। प्रात्मा आदि अन्त से रहित और अज-अविनाशी है और अपने मापसे भिन्न नहीं हुमा इससे देश, काल, वस्तु के परिच्छेद से रहित हैबन्ध नहीं और जो बन्ध नहीं तो मुक्त कैसे हो ? सर्वकलना से रहित प्रात्मा सबको अपना पाप है पर अविचार से मूद रुदन करते हैं, इससे मैंने जो तुमको उपदेश किया है