पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७५३

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उपरामप्रकरण। कलना नहीं करती वहाँ सुख दुःख भी नहीं फरता । जैसे वृक्षों और पहाड़ों से अहं त्वं शब्द नहीं फुरता तेसे ही पात्मा में भी नहीं पुरते इससे जानवान में कर्तृत्व मोक्तृत्व नहीं फुरते। हे रामजी! मात्मा निरहं- कार और निराकार उसमें कर्तृत्व भोक्तृत्व केसे होवेमात्मा में कर्तृत्व भोक्तृत्व भावान से भासताहे-जैसे मरुस्थल में जल भासता है। हे रामजी! भवानरूप मदिरा-पान करके मनरूप मृग मत्त हुभा है उससे वह सत् असत् का विचार नहीं कर सकता-जैसे मृगतृष्णा कीनदी असत् ही सत् भासती है और मृग उसको सत् जानकर पान करने के निमित्त दौड़ता है, तैसे ही यह जीव अरूप संसार को रूप जानकर दौड़ता है। जब भात्म- सत्ता का सम्यक्वोध होता है तब यह भविद्या नष्ट हो जाती है। जैसे ब्राह्मणों के मध्य चाण्डाली मान बैठे और जब ब्राह्मण उसको पहिचाने कि यह चायडाली है तो वह विप जाती है तैसे ही जब अविद्या कोजाना तब वह नष्ट हो जाती है। हे रामजी जब भाविद्या कोज्यों की त्यों जाना तब अविद्यारूपी जगत् मन को नहीं बच सकता जैसे मृगतृष्णा की नदी को जब जाना तब तृषा हो तो भी मन को वह जल नहीं बैंच सकता। हे रामजी। जब परमार्थसत्ता का बोध होता है तब मूल से वासना नष्ट हो जाती है, जैसे सूर्य के उदय से अन्धकार नष्ट हो जाता है तैसे ही मात्मवान से अविद्या वासनासहित नष्ट हो जाती है। हे रामजी! भविद्या भविचार से सिद्ध है जब सत्शात्रों की युक्ति से विचार प्राप्त होता है तब भविद्या नष्ट हो जाती है। जैसे वरफ का कणका धूप से गलकर जलमय हो जाता है तैसे ही विचार से भज्ञान नष्ट हो जाता है। हे रामजी ! देह जड़ है और भात्मा सदा चेतनरूप है, फिर जड़ देह के निमित्त भोगों की वाञ्छा करनी बड़ी मूर्खता है। जो ज्ञानवान पुरुष है वे इस बन्धन को तोड़ डालते हैं। हे रामजी भाशारूपी फाँसी को हृदय से काटो, जब भाशारूपी भावरण दूर होगा तब पूर्णमासी के चन्दमावत् हृदय शीतल हो जावेगा। तैसे ही यह पुरुष भी तीन तापों से मुक्त शीतल हो जाता है-जैसे पर्वत में अग्नि लगे और उसके ऊपर जल की बहुत वर्षा हो तो वह तप्तता से मुक्त हो शान्तिमान होता है।