पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७५५

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उपशम प्रकरण। ७४७ वाम्बा नहीं करता। वह सबको पानन्दवान करता है और भाप किसी से भानन्दवान नहीं होता । वह न किसी को देता है, न लेता, न किसी की स्तुति करता, न निन्दा करता है, न किसी उत्तम पदार्थ को पाकर उदय होता है और न भनिष्ट को पाकर नष्ट होता है और हर्ष-शोक से रहित है। उसने सब फल का त्याग किया है और उपाधि से रहित है और कर्तृत्व भोक्तृत्व से भापकोन्यारा मानता है। ऐसा जो पुरुष है वह जीवन्मुक्त है। हे रामजी ! जब तुम सब इच्छा त्यागकर मौन हो तब निर्विशेषभाव को प्राप्त होगे। जैसे मेघ जल का त्यागकर मोनभाव को प्राप्त होता है तेसे ही तू मोक्षमाव को प्राप्त होगा। हे रामजी! जैसे कामी पुरुष सी को कण्ठ में लगाकर भानन्दवान होता है पर उसको ऐसा भानन्द नहीं होता जैसा भानन्द निर्वासनिक पुरुष को होता है, फूल के गुच्छे से वसन्तऋतु ऐसी नहीं शोभती जैसे उदारबुद्धि भात्म मौनवान शोभता है, हिमालय पर्वत में प्राप्त हुआ भी ऐसा शीतल नहीं होता जैसा निर्वासनिक पुरुष का मन शीतल होता है, मोतियों की माला से और केले के वन को प्राप्त हुमा भी ऐसा सुख नहीं पाता और चन्दनों के पान करनेवाला भी ऐसा शीतल नहीं होता जैसा शीतल निर्वासनिक मन होता है और चन्द्रमा के स्पर्श से भी ऐसाशीतल नहीं होता जैसे निर्वा- सनिक पुरुष शीतल होता है। चन्द्रमा बाहर की तप्तता मिटाता है परन्तु भीतर की तप्तता निवृत्त नहीं करता पर निराशता से हृदय की तप्तता मिट जाती है और परम शान्ति को प्राप्त होता है। जैसी शीतलता निर्वासनिक पुरुष के संग से होती है तेसी और किसी उपाय से नहीं प्राप्त होती। हे रामजी ! ऐसा सुख स्वर्ग में नहीं प्राप्त होता और न सुन्दर स्त्रियों के स्पर्श से होता है जैसा सुख निर्वासनिक को प्राप्त होता है। निर्वासनिक पुरुष उस सुख को प्राप्त होता है जिस सुख में त्रिलोकी के सुख तृणवत् भासते है। हे रामजी! माशारूपी का के वृक्ष के काटने को उपशमरूपी कुल्हाड़ा है जो पुरुष निर्वासनिक हुआ है उसको सब पृथ्वी गोपद के समान तुच्छ भासती है, मेरु पर्वत एक टूटे वृक्ष के समान भासता है और दिशा डिब्बी के समान भासती है, क्योंकि वह उत्तम पद को प्राप्त हुमा है और