पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७५६

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. योगवाशिष्ठ। त्रिलोकी की विभूति तृण की नाई तुच्छ देखता है। जो पुरुष निर्वा- सनिक हुआ है वह जगत् को देखकर हँसता है और कदाचित् उसे जगत् के पदाथों की कल्पना नहीं फुरती। तृणवत् जानकर उसने जगत् की त्याग दिया है और सदा पात्मतत्त्व में स्थित है उसको किसकी उपमा दीजिये उस पुरुष के उदय, अस्त, महं, त्वं मादिक कलना नष्ट हो गई है और केवल मात्मस्वभाव को प्राप्त हुभा है । उस ईश्वर भात्मा को कौन तोल सकता है, जब दूसरा उसके समान हो तब तोले। हे रामजी! वह पुरुष सब सङ्कटों के अन्त को प्राप्त हुमा है। यह जगत् मिथ्या भ्रम- रूप है । जैसे भाकाश में भ्रम से दूसरा चन्द्रमा, मरुस्थल में नदी और मद्यपान से नगर भ्रमता भासता है, तैसे ही यह मिथ्या जगत् भ्रम से भासता हे इसकी भाशा मत करो। तुम तो बुद्धिमान पंडित हो मूखों की नाई मोह को क्यों प्राप्त होते हो? यह मैं और यह मेरा भज्ञान से भासता है, इस कलना को चित्त से दूर करो। यह वास्तव में कुछ नहीं, सब जगत् मात्मरूप है भोर नानात्व कुछ नहीं है जो सम्यक्दी पुरुष है वह जगत् को एकरूप जानकर धैर्यवान रहता है कदाचित् खेद नहीं पाता। हे रामजी । जो पुरुष निर्वासनिक हुआ है भात्मविचार से प्रात्मपद को प्राप्त हुमा है उसको देखकर महिनेवाली माया भी भाग जाती है भौर निकट नहीं भाती। जैसे सिंह के निकट मृग नहीं पाता तैसे ही ज्ञानवान् के निकट माया नहीं पाती । सुन्दर स्त्रियाँ, मणि,कञ्चनादिक धन और पत्थर, काठ सब उसको तुल्य भासता है, भोगों से उसको मुख नहीं होता और आपदा से खेद नहीं होता, वह सदा ज्यों के त्यों रहता है। जैसे पर्वत वायु से चलायमान नहीं होता तेसे ही वह पुरुष सुख दुःख से चलायमान नहीं होता। सुन्दर बाला बी उसके चित्त को सींच नहीं सकती, कामदेव के चलाये बाण उसके ऊपर टुकड़े-टुकड़े होजाते हैं और रागदेष उसको खींच नहीं सकते। वह सदा भापको निराकार, भदेत, निष्क्रिय और निर्गुण जानता है और सुन्दर बगीचे, ताल, बेखि शय्या, इन्द्रियों के विषयभोग और दुःख देनेवाले उसको तुल्य हैं रागदेष को नहीं प्राप्त करते । जैसे ऋतु के अनुसार मीठा भोर कटु फल होता