पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७५७

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उपशम प्रकरण। है तो उसको किसी में रागदेषनहीं होता मकस्मात् जो भोग प्राप्त होता है उसको वह भोगता है परन्तु हर्ष मोरशोकवान नहीं होता। हे रामजी! यथार्थदर्शी ष्ट अनिष्ट से चलायमान नहीं होता-जैसे वसन्तऋतु के माने जाने में पर्वत सुख दुःख को प्राप्त नहीं होता। वह कर्महन्द्रियों से कर्म करता है परन्तु उसमें भासत नहीं होता और बाहर दृष्टि से भासक्त भासता है परन्तु भीतर भासत नहीं होता। वह जो बाहर आसक्दृष्टि नहीं भाता परन्तु चित्त भासत है वह डूबता है-जैसे शुद्ध मणि कीचड़ में दृष्टि भाती है तो भी उसको कुछ कलङ्कनहीं और जो बीच से खोटी है वह यदि बाहर से उज्ज्वल भी भासती तो भी सकलङ्क है, तैसे ही जो चित्त से भासत है वह मासक्त है भोर जो चित्त से भासत नहीं वह भासत नहीं। हे रामजी! भात्मसत्ता सदा प्रकाशरूप, नित्य, शुद्ध और परमानन्दस्वरूप है। जिस पुरुष को अपने शुद्ध स्वरूप का बान है उसको विस्मरण नहीं होता। हेगमजी! जिसके शरीर से महं- भाव उठ गया है और इन्द्रियों से कर्म करता है तो वह करता भी नहीं करता और जिसके देह में महंभाव है वह नहीं करता भी करता है । जैसे किसी को चिरकाल के उपरान्त बान्धव मिला विस्मरण नहीं होता तैसे ही जिसने अपना स्वरूप जाना है उसको वह फिर विस्मरण नहीं होता। हे रामजी! जिनको शुद्धस्वरूप का समय छान होता है उनको भ्रान्ति- रूप जगत् नहीं भासता-जैसे रस्सी में भ्रम से सर्प भासता है पर जब भ्रम निवृत्त हुभा तब ज्यों की त्यों रस्सी भासती है सर्प नहीं भासता । जैसे मरुस्थल में जलबुद्धि निवृत्त हुए फिर जलबुद्धि नहीं होती, तैसे ही मात्मा के जाने से देहभाव नहीं होता। जैसे पहाड़ से नदी उत. रती है सो फिर पहाड़ पर नहीं चढ़ती और सुवर्ण का खोट अग्नि से जला हुमा चाहे कीचड़ में गलिये फिर खोटा नहीं होता तेसे ही जब हृदय की चिद्रन्थि टूटी तब गुणों के व्यवहार में गाँठ नहीं पड़ती अर्थात् बन्धायमान नहीं होता। जैसे वृत्त से टूटा फल फिर नहीं लगता तेसे ही जिसका देहाभिमान टूटा है उसको फिर अभिमान नहीं होता। जैसे खोहे के हथौड़े से पारे को चूर्ण किया तो फिर वह नहीं फुरता।