पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

योगवाशिष्ठ। जिस पुरुष ने अविद्या को जाना है वह फिर उसकी संगति नहीं करता और जिस ब्राह्मण ने चाण्डालों की सभा जानी फिर वह उनकी संगति नहीं करता, तैसे ही प्रात्मविचार से मन को चूर्ण किया तब फिर वह नहीं फुरता । जिस पुरुष ने भविद्यारूप जगत् को जाना है वह फिर जगत् के पदार्थों में भासत नहीं होता। हे रामजी! विष जो मधुर जल से मिला हो तो जबतक जाना नहीं तब तक उसको कोई पान करता है और जब उसको जाना तब फिर पान नहीं करता तैसे ही जब तक इस संसार को ज्यों का त्यों नहीं जाना तब तक इसके पदार्थों की इच्छा करता है पर जब जाना कि यह मायामात्र है तब इसकी इच्छा नहीं करता। हे रामजी ! सुन्दर बी जो नाना प्रकार के वन और भूषणों सहित दृष्टि भाती है उनको ज्ञानवान जानता है कि ये अस्थि, मांस, रुधिर भादिक की पुतलियाँ बनी हैं और कुछ नहीं जो उनकी इच्छा त्यागता है तो वह विरक्त हो जाता है । जैसे मूर्ति पर नील, पीत, श्यामरा लिखे होते हैं तैसे ही उनके वन भोर केश हैं। हे रामजी! जिस पुरुष को प्रात्मा का साक्षात्कार होता है उसको भवस्तु में वस्तु. बुद्धि नहीं होती। भवस्तु में वस्तुबुद्धि तब होती है जब वस्तु का विस्मरण होता है सो ज्ञानवान् को तो सदा स्वरूप का स्मरण है उसको प्रवस्तु में वस्तुबुद्धि केसे हो ? जिसको भात्मबुद्धि हुई है उसको विस्मरण नहीं होता। जैसे किसी पुरुष ने किसी के पास गुड़ रक्खा हो भोर वह खाजावे तो उसको वह दण्ड आदि दे सकेगा परन्तु उसका रस दूर नहीं कर सकता. तेसे ही जिसको प्रात्मा का अनुभव हुमा है उसको कोई कुछ नहीं कर सकता । हे रामजी ! जैसे कुलटा नारी का किसी पुरुष से चित्त लगता है तो वह गृह का कार्य भी करती है परन्तु चित्त उसका सदा उसमें ही रहता है, वैसे ही वानवान् क्रिया करता है परन्तु उसका चित्त सदा मात्मपद में रहता है और जैसे परव्यसनी नारी को उसका भर्ता दण्ड भी देता है पर तो भी स्पर्श का सुख उसके हृदय से दूर नहीं कर सकता, तैसे ही जिसको भात्ममनुभव हुमा है उसको कोई दूर नहीं कर सकता मोर जो देवता और दैत्य दूर नहीं कर सकते