पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७५९

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उपशम प्रकरण। ७५१ तो मोरों की क्या वार्ता है। जो बड़े सुख अथवा दुःख का प्रवाह भान पड़े तो भी उनको स्पर्श नहीं कर सकता, कर्ता हुभा भी वह अकर्ता है। जैसे परख्यसनी नारी परपुरुष के संयोग से सुख पाती है परन्तु उसको स्पर्श के सुख का अनुभव हुमा है उसके संकल्प से प्रखण्ड अनुभव करती है उससे उसको दुःख कुछ नहीं भासता,तेसे ही जिसको भात्मसुख हुभा है उसको दुःखसुख कुछ नहीं भासते । हे रामजी ! सम्यक्तान से जिसकी भविद्या नष्ट हुई है वह दुःख नहीं देखता । जो उसके अंग काटे जावें तो भी उसको दुःख नहीं होता और शरीर के नष्ट हुए वह नष्ट नहीं होता सुख दुःख उसके नष्ट हो गये हैं और सदा वह प्रात्मपद में निश्चय रखता है। संकटवान भी वह दृष्ट पाता है परन्तु उसको संकट कोई नहीं। वह वन में रहे अथवा गृह में रहे, व्यवहार करे अथवा समाधि करे, वह सदा ज्यों का त्यों रहता है उसको खेद कष्ट किसी प्रकार से नहीं होता। इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे नीरास्पदमौनविचारो नामकोनसप्ततितमस्सर्गः॥६६॥ वशिष्ठजी बोले, हे रामजी ! राजा जनक राजव्यवहार करता था परन्तु भात्मपद में स्थित था इससे उसको कलङ्कन हुमा और सदा विगतज्वर ही रहा, तुम्हारा पितामह राजा दिलीप भी सर्व प्रारम्भों को करता रहा परन्तु रागदेष को न प्राप्त हुमा और जीवन्मुक्त होके चिर- पर्यन्त पृथ्वी का राज्य करता रहा, राजा मज नाना प्रकार के युद्ध और राजव्यवहार की पालना करता हुभा सदा जीवन्मुक्त स्वभाव में स्थित था, राजा मान्धाता नाना प्रकार की युद्ध चेष्टा करता था परन्तु सदा परमपद में स्थित रहा और कदाचित् मोह को न प्राप्त हुमा, राजा बलि महात्यागी पाताल में राजव्यवहार को करता भी दृष्ट भाया परन्तु स्वरूप केबान से सदाशान्तरूप जीवन्मुक्त होकर विचरता था, नभचर दैत्यों का राजा सदा नाना युद्ध भादिक क्रिया में रहा करता था और देवताओं के साथ सदा विरोध रखता था परन्तु हृदय में उसके कुछ ताप न था। इन्द्र ने युद्ध में त्रासुर दैत्यों को मारा, सदा शीतल रहा कदाचित् खोभ को न