पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७६

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योगवाशिष्ठ।

गढ़ा तृण से आच्छादित होता है और मृग का बालक उस तृण को रमणीय जानकर खाने जाता है तो गिर जाता है वैसे ही यह मूर्ख जीव भोगों को रमणीय जान भोगों में गिर पड़ता है, फिर महादुःख पाता है। हे मुनीश्वर! जगत् के पदार्थों से मेरी बुद्धि चञ्चल हो गई है, इससे वही उपाय कहिये जिससे मेरी बुद्धि पर्वत की नाई निश्चल हो और परमानन्द जो निर्भय निराकार है और जिसके पाने से किसी पद की इच्छा नहीं रहती उसे पाऊँ। हे मुनीश्वर! ऐसे पद से मेरी बुद्धि शून्य है, इससे मैं शान्तिमान् नहीं होता। यह संसार और संसार के कर्म मोहरूप हैं, इसमें पड़े हुए शान्ति नहीं पाते। जनकादिक शान्तिमान् संसार में रहे हुए कमल की नाई निर्लेप रहते हैं। उनकी क्या समझ है कृपा करके कहिए और आप ऐसे सन्तजन विषय भोगते दृष्टि आते और जगत् की सब चेष्टा करते हैं पर निर्लेप कैसे रहते हैं वह युक्ति कहिये। यह बुद्धि जैसे ताल में हाथी प्रवेश करता है और पानी मलीन हो जाता है वैसे ही मोह से मलीन हो जाती है। इससे वही उपाय कहिये जिससे बुद्धि निर्मल हो। यह बुद्धि स्थिर कभी नहीं रहती। जैसे कुल्हाड़े का कटा वृक्ष मूल से स्थिर नहीं होता वैसे ही वासना से कटी बुद्धि स्थिर नहीं रहती। हे मुनीश्वर! संसाररूपी विसूचिका मुझको लगी है इससे वही उपाय कहिये जिससे दृश्य का नाश हो—इसने मुझको बड़ा दुःख दिया है। आत्मज्ञान कब प्रकाश होगा जिसके उदय से मोहरूपी अन्धकार का नाश हो? हे मुनीश्वर! जैसे बादल से चन्द्रमा आच्छादित हो जाता है वैसे ही बुद्धि की मलीनता से मैं आच्छादित हुआ हूँ। इससे वही उपाय कहिये जिससे आवरण दूर हो और आत्मानन्द जो नित्य है प्राप्त हो। इसके पाने से फिर कुछ पाने की आवश्यकता नहीं रहती और इससे सम्पूर्ण दुःख नष्ट हो जाते हैं। अन्तःकरण शीतल हो जाता है। ऐसे पद की प्राप्ति का उपाय मुझसे कहिये। हे मुनीश्वर! आत्मज्ञानरूपी चन्द्रमा की मुझको इच्छा है; जिसके प्रकाश से बुद्धिरूपी कमीलनी खिल जाती है और जिसकी अमृतरूपी किरणों से वृत्ति तृप्त होती है। हे मुनीश्वर! अब मुझको गृह में रहने की इच्छा नहीं