पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७६०

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७५२ पोगवाशिष्ठ। प्राप्त हुमा और देत्यों का राजा महाद पाताल में राज्य करता रहा परन्तु हृदय में उसे कुछ शोभन पाया। हे रामजी! सम्बर नामक दैत्य अपनी सृष्टि के रचने को उदय हुमा पर रचने में बन्धवान् था वह सदा साम्बी मायापरायण रहा और माया से एक मायावीरूप होकर स्थित हुमा।हे रामजी! यह संसार जो साम्बरी मायारूप है उसको साम्बरीवत् त्यागकर अपने स्वरूप में स्थित हो । विष्णु भगवान सदा दैत्यों को मारते भोर युद्ध करते रहते हैं पर हृदय में अल्पबुद्धि है इससे सदा सुखी जीवन्मुक्त है और मुर दैत्य ने विष्णु से युद्ध में शरीर छोड़ा परन्तु हृदय में उसे देह से कुछ सम्बन्ध न था इससे जीवन्मुक्त सुखी रहा और पीड़ा को न पास हुमा । हे रामजी । सब देवताभों का मुख अग्नि है सो यजलक्ष्मी को चिरकाल पर्यन्त भोगता है परन्तु ज्ञानवान है इससे शोभवान नहीं होता, सदा शीतल रहता है । देवता सदा चन्द्रमा की किरणों से अमृत पान करते हैं परन्तु चन्द्रमा को कुछ क्षोभ नहीं होता और देवगुरु बृह- स्पति ने श्री के लिये चन्द्रमा से युद्ध किये मोर देवताओं के निमित्त नाना प्रकार के कर्म करते हैं परन्तु रागदेष को नहीं प्राप्त होते इससे जीवन्मुक्त हैं । हे रामजी । दैत्यों के गुरु शुक्रजी दैत्यों के निमित्त सदा यत्न करते रहते हैं और लोभी की नाई अर्थ चिन्तते हैं परन्तु जीवन्मुक्त हैं । जो हृदय से सदा शीतल रहता है वह कदाचित् खेद नहीं पाता। पवन प्राणियों के अंगों को चिरकाल फेरता है और चेष्टा करता है पर खेद को नहीं प्राप्त होता इससे जीवन्मुक्त है। ब्रह्मा सदा लोकों को उत्पन्न करता है और प्रलयपर्यन्त इसी क्रिया में रहता है परन्तु उसे स्वरूप का साक्षात्कार है इससे जीवन्मुक्त है। विष्णु भगवान युद्धा- दिक बन्दों में रहते हैं और जरामृत्यु मादिक भावों को प्राप्त होते हैं परन्तु सदा मुक्तस्वरूप हैं। सदाशिव त्रिनेत्र अर्धाङ्गधारी हैं परन्तु हृदय में संयुक्त नहीं हैं इससे जीवन्मुक्त हैं। मोरी मोतियों की माला कवठ में धारती हैं और त्रिनेत्र को सदा मालावत् कवठ में रखती हैं परन्तु हृदय से शीतल रहती हैं इससे जीवन्मुक्त हैं। स्वामिकार्तिक देत्यों के साथ युद्ध करते रहे परन्तु बानरूपी रखों के समुद्र थेभोर हृदय से शीतल थे।