पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७६३

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७५५ . उपशम प्रकरण। कहाता है। जो पुरुष सर्वभाव प्रभाव पदार्थों को त्यागकर केवल अदेत तत्त्व को प्राप्त हुमा है और जिसकी शरीर प्रादि कोई क्रिया दृष्टि नहीं पाती वह विदेहमुक्त कहाता है जिसका स्नेह पदार्थों से दूर नहीं हुमा वह मुक्ति के अर्थ भी यत्न करता है तो भी वन्ध कहाता है जो युक्तिपूर्वक यत्न करता है उसको दुस्तर भी सुगम हो जाता है और जो युक्ति से रहित यत्न करता है उसको गोपद भी समुद्र हो जाता है । हे रामजी! जिन्होंने आत्मविचार किया है उनको विस्तृत जगत्समुद गोपद हो जाता है और मज्ञानी को गोपद भी दुस्तर हो जाता है उसे कोई इष्ट अनिष्ट अल्प भी प्राप्त होता है तो उसमें डूब जाता है निकल नहीं सकता। उसको गोपद भी समुद्र है । ज्ञानी को अत्यन्त विभूति और ऐश्वर्य मिले अथवा उसका प्रभाव हो जावे तो भी वह उसमें रागदेष करके नहीं डूबता । हे रामजी अपने प्रयत्न केवल सब होता है, जो कोई प्रधान हुआ है वह प्रयत्न- रूपी वृक्ष के फल से ही हुआ है। प्रात्मपद की प्राप्त भी प्रयत्नरूपी वृत्ति का फल है। इसमे और उपाय त्यागकर प्रात्मपद की प्राप्ति का प्रयत्न करो। इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे मुक्कामुक्तविचारो नाम सप्ततितमस्सर्गः॥७॥ वशिष्ठजी बोले, हे रामजी ! जो कुछ जगजाल है वह सब आत्मा ब्रह्म का आभासरूप है, अज्ञान से स्थिरता को प्राप्त हुआ है और विवेक से शान्त हो जाता है। ब्रह्मरूपी समुद्र में जगरूपी भावर्त जो फुरते हैं उनकी संख्या कोई नहीं कर सकता। प्रात्मरूपी सूर्य के जगरूपी त्रसरेणु हैं। हे रामजी! असम्यदर्शन ही जगत् की स्थिति का कारण है और सम्यकूदर्शन से शान्त हो जाता है-जैसे मरुस्थल में असम्यक् दर्शन से जल भासता है और सम्यकदृष्टि से प्रभाव हो जाता है। हे रामजी ! संसाररूपी अपार समुद्र से युक्ति भोर प्रात्मअभ्यास बिना तरना कठिन है। मोहरूपी जल से वह पूर्ण है, मरणरूपी उसमें भावर्त है, पापरूपी भाग है, बड़वाग्नि इसके भङ्गों में नरक समान है तृष्णारूपी भंवर है, इन्द्रियाँ और मनरूपी तेंदुये और मल्छ हैं, क्रोधरूपी सर्प हैं, जीवरूपी नदियाँ हैं उसमें प्रवेश करती है, और जन्ममरणरूपी भावर्त-