पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७६४

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७५६ योगवाशिष्ठ। चक्र हैं उनसे जो तर जाता है वही पुरुष है। त्रियाँ जो सुन्दर लगती हैं उनके महाबलवान नेत्र हैं जिनसे पहाड़ों को भी खींच सकती है और मोतियों की नाई दाँत इत्यादिक जो सुन्दर भङ्ग हैं वे महादुःख के देने वाले बड़वाग्नि की नाई हैं। जो इनसे तर जाता है वही पुरुष है। हे रामजी । जो जहाज और मल्लाहों के होते भी इनको नहीं तरते उनको धिकार है। जहाज और मल्लाह कौन है सो सुनो। जिस मनुष्य के शरीर में विचारसहित बुद्धि है वही जहाज है और सन्तरूपी मल्लाह है। इनको पाकर जो संसारसमुद्र से नहीं तस्ते उनको धिकार है। ऐसे संसारसमुद्र को जो तर गया है उसी को पुरुष कहते हैं । हे रामजी! जिस पुरुष ने भात्मविचार में बुद्धि लगाई है वह तर जाता है अन्यथा कोई नहीं तर सकता। जिसको प्रात्मअभ्यास दृढ़ हुआ है वह तर सकता है। हे रामजी । प्रथम मानवान पुरुषों के साथ विचार और बुद्धि से संसार- समुद्र को देखो। जब तुम इसको ज्यों का त्यों जानोगे तब विलास और क्रीड़ा करने योग्य होगे। हे रामजी ! तुम तो भगवान् हो प्रबोध संसारसमुद्र से तर जामो। तुम तो समर्थ हो तुम्हारे पीछे और तुम्हारे स्वभाव को विचार के और भी संसारसमुद्र से तर जावेंगे। जो इस शुभ मार्ग को त्यागकर विषयमार्ग की ओर जाते हैं वे संसारसमुद्र में डूबे हैं। हे रामजी! ये जो विषयभोग है वे विषरूप हैं, जो इनको सेवेगा वह नष्ट होगा परन्तु जिसको बान प्राप्त हुमा है उसको यह जैसे गारुड़ मन्त्र पढ़नेवाले को सर्प दुःख नहीं दे सकता तैसे ही दुःख दे नहीं सकते। जिसका हृदय शुद्ध हुआ है वह विभूतिमान है बल, वीर्य और तेन यह तीनों तत्व के साक्षात्कार से बढ़ते हैं जैसे वसन्त ऋतु के आये से रस, फूल, फल सब प्रकट हो भाते हैं। हे रामजी! जिसे बानलक्ष्मी प्राप्त भी है वह पूर्ण अमृततुल्य, शीतल, शुद्ध और सम प्रकाशरूप है । इस लक्ष्मी को पाकर विदितवेद में स्थित हो रहते हैं। इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे संसारसागरयोगोपदेशो नामैकसप्ततितमस्सर्गः ॥७१ ॥