पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७६६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

७५८ योगवाशिष्ठ। पाप नहीं, ग्रहण में ग्रहण नहीं और त्याग में त्याग नहीं, वह नबन्ध है, न मुक्त है और न उसे भाकाश में कार्य है न पाताल में कार्य है, वह यथावस्तु भौर यथादृष्टि श्रात्मा को देखता है उसको दैतभाव कुछ नहीं फुरता और न उसको वध मुक्त के निमित्त कुछ कर्तव्य है, क्योंकि सम्यक्सान से उसके सब संदेह जल गये हैं। जैसे पिंजरे से छूटा पक्षी आकाश में उड़ता है तैसे ही शङ्का से रहित उसका चित्त मात्माकाशको प्राप्त हुया है। हे रामजी! जिसका मन संसारभ्रमसे मुक्त हुआ है जोरजो समरस भात्मभाव में स्थित है उसको इष्ट भनिष्ट में कुछ रागदेष नहीं होता, वह भाकाश की नाई सबमें सम रहता है। जैसे पालने में बालक अभिमान से रहित अङ्ग हिलाता है तैसे ही ज्ञानी की चेष्टा अभिमान से रहित होती है और जैसे मद्यपान करनेवाला उन्मत्त हो जाता है तैसे ही प्रात्मानन्द में बानी धर्म हो जाता है और दैत की संभाल उसको कुछ नहीं रहती, हेयोपादेय बुद्धि से रहित होता है। हे रामजी । वह सबको सर्व- पकार ग्रहण करता है और त्याग भी करता है परन्तु हृदय से प्रहण त्याग कुछ नहीं करता । जैसे वाचकों को ग्रहण त्याग की बुद्धि नहीं होती तैसे ही बानी को नहीं होती और न उसको सब कार्यों में रागदेष ही फुरता है वह जगत् के पदार्थों को न सत् जानकर ग्रहण करता है और न असत् जानकर त्याग करता है, सबमें एक अनुस्यूत भात्मत्त्व देखता है, न इष्ट में सुखबुद्धि करता है और न अनिष्ट में देषबुद्धि करता है। हे रामजी! जो सूर्य शीतल हो जावें, चन्द्रमा उष्ण हो जावें और भग्नि अधो को धावे तो भी बानी को कुछ भाश्चर्य नहीं भासता। वह जानता है कि सब चिदात्मा की शक्ति फुरती है वह न किसी पर दया करता है, मोरन निर्दयता करता है,न लजा करता है, न निर्लज है, न दीन होता है, न उदार होता है, न सुखी होता है, न दुःखी होता है, और उसे न हर्ष है, न उद्वेग है, वह सब विकारों से रहित शुद्ध अपने भापमें स्थित है। जैसे शरत्काल का भाकाश निर्मल होता है तैसे ही वह भी निर्मल भाव में स्थित है और जमे भाकाश में अंकुर नहीं उदय होता तैसे ही उसको रागद्वेष उदय नहीं होता । हे रामजी ! ऐसा पुरुष सुख दुःख को -