पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७६७

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७५६ उपशम प्रकरण। कैसे प्रहण करे ? उसको जगजाल ऐसे भासता है जैसे जल में तरङ्ग। ऐसे जानकर तुम भी अपने स्वभाव में स्थित हो। हे रामजी जैसे जाग्रत् के एक निमेष में स्वप्रसृष्टि फर पाती है और एक ही क्षण में नष्ट हो जाती है, तेसे ही जाग्रत् में भी सृष्टि उपज भाती है और लीन हो जाती है। जो कुछ इच्छा, अनिच्छा, दुःख, सुख, शोक, मोह भादिक विकार हैं वे सब मन में फुरते हैं, जहाँ मन होता है वहाँ विकार भी होते हैं। जैसे जहाँ समुद्र होता है वहाँ तरङ्ग भी होते हैं तैसे ही जहाँ मन होता है वहाँ विकार भी होते हैं और जहाँ चित्त का अभाव है वहाँ विकारों का भी प्रभाव है। जबतक चित्त फुरता है तबतक जगभ्रम होता है और जब विचार- रूपी सूर्य के तेज से मनरूपी वरफ का पुतला गल जाता है तब आनन्द होता है। तब सुख दुःख की दशा शान्त हो जाती है और जब सुख दुःख का अभाव हुथा तवग्रहणत्याग भी मिट जाता है और इष्ट अनिष्ट वाञ्छित नष्ट हो जाते हैं । जब ये नष्ट हो जाते हैं तब शुभ अशुभ भी नहीं रहते और जब शुभ अशुभ न रहे तव रमणीय श्ररमणीय भी नष्ट हो जाते हैं और भोगों की इच्छा भी नष्ट हो जाती है । जब भोगों की इच्छा नष्ट हो जाती है तब मन भी निराशपद में लीन हो जाता है । हे रामजी ! जब मूल से मन नष्ट हुआ तब मन में जो संकल्प हैं वे कहाँ रहे ? जैसे तिलों के जले से तेल नहीं रहता तेसे ही मन में संकल्प विकल्प नहीं रहते तब केवल शान्त यात्मा ही शेष रहता है। जैसे मन्दराचल के क्षोभ मिटे से धीरसमुद्र शान्तिमान होता है तेमे ही चित्त शान्त होता है। हे रामजी ! इससे भाव में प्रभाव की भावना दृढ़ करो और स्वरूप का अभ्यास करो। जैसे शरत्काल का आकाश निर्मल होता है तैसे ही कलना को त्यागकर महात्मा पुरुष निर्मल हो जाता है। इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे जीवन्मुक्तवर्णनन्नाम दिसाप्तितमस्सर्गः॥७२॥ वशिष्ठजी बोले, हे रामजी ! जैसे जल में द्रवता से चक्र (भावर्त) होते हैं सो असत् ही सत् होकर भासते हैं तैसे हीचित्त के फुरने से असत् जगत् सत् हो भासता है और जैसे नेत्रों के दुखने से पाकाश में तरुवरे