पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७६८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

योगवाशिष्ठ। मार के पुच्छवत् मुक्तमाला हो भासते हैं सो असत् ही सत् भासते हैं तैसे ही चित्त के फुरने से जगत् भासता है। जैसे बादलों के चलने से चन्द्रमा चलता दृष्टि भाता है तैसे ही चित्त के फुरने से जगत् भासता है। रामजी बोले, हे भगवन् ! जिससे चित्त फुरता है और जिससे अफर होता है वह प्रकार कहिये कि उसका में उपाय करूँ। वशिष्ठजी बोल, हे रामजी! जैसे बरफ में शीतलता, तिलों में तेल, फूलों में सुगन्ध और अग्नि में उष्णता होती है तैसे ही चित्त में फुरना होती है । चित्त और फुरना दोनों एक अभेद वस्तु है, दोनों में जब एक नष्ट हो तब दोनों नष्ट हो जाते हैं। जैसे शीतबता और श्वेतता के नष्ट हुए बरफ नष्ट हो जाती है तेसे ही एक के नाश हुए दोनों नष्ट होते हैं। इसलिये चित्त के नाश के दो क्रम हैं-योग भौर बान । चित्त की वृत्ति के रोकने को योग कहते हैं और सम्यक् विचारने का नाम ज्ञान है । रामजी ने पूछा, हे भगवन् ! वृत्ति का विरोध किस युक्ति से होता है और प्राण, भपान पवन क्योंकर रोके जाते हैं कि जिस योग से अनन्त सुख और सम्पदा प्राप्त होती है ? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी ! इस देह में जो नाड़ी हैं उनमें प्राणवायु फिरता है-जैसे पृथ्वी पर नदियों काजल फिरता है। वह प्राणवायु एक ही है पर स्पन्द के वश से नाना प्रकार की विचित्र क्रिया को प्राप्त होता है उससे अपान मादिक संवा पाता है। योगीश्वरों की कल्पना है कि जैसे पुष्प में सुगन्ध और वरफ में श्वेतता अभेद है और प्राधार प्राधेय एकरूप है तैसे ही प्राण और चित्त अभेदरूप है । जब भीतर प्राणवायु फुरती है तब चित्तकला फुरकर जो संकल्प के सम्मुख होती है उसी का नाम चित्त है। जैसे जल द्रवीभूत होता है और उसमें लहर और चक्र फुरभाते हैं तैसे ही माणों से चित्त फर पाता है। चित्त के फुरने का कारण प्राणवायु ही है जब प्राणवायु का निरोध होता है तब निश्चय करके मन भी शान्त होता है और मन के लीन हुए संसार भी लीन हो जाता है-जैसे सूर्य के प्रकाश के अभाव हुए रात्रि में मनुष्यों का व्यवहार शान्त हो जाता है । रामजी ने पूछा, हे भगवन् ! यह जो सूर्य और चन्द्र निरन्तर मागमन करते हैं वो देहरूपी गृह में प्राणवायु का