पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
७१
वैराग्य प्रकरण।

और वन में जाने की भी इच्छा नहीं। मुझको तो उसी पद की इच्छा है जिसे पाकर अन्तःकरण शान्त हो जाय।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे वैराग्यप्रकरणे वैराग्यमयोजन
वर्णनन्नाम पञ्चविंशतिमस्सर्गः॥२५॥

श्रीरामजी बोले कि हे मुनीश्वर! जो जीने की आस्था करते हैं वे मूर्ख हैं। जैसे कमलपत्र पर जल की बूँद नहीं ठहरती वैसे ही आयु भी क्षणभंगुर है। जैसे वर्षाकाल में दादुर बोलते हैं और उनका चञ्चल कंठ सदा फड़कता रहता है वैसे ही आयु क्षण क्षण में चञ्चल हो जाती है। जैसे शिवजी के मस्तक में चन्द्रमा की रेखा छोटी सी है वैसे ही यह शरीर है। हे मुनीश्वर! जिसको इसमें आस्था है वह महामूर्ख है—यह तो काल का ग्रास है। जैसे विल्ली चूहे को पकड़ लेती है वैसे ही सबको काल पकड़ लेता है। जैसे विल्ली चूहे को सँभलने नहीं देती वैसे ही काल सबको अचानक ग्रहण कर लेता है। और किसी को नहीं भासता। हे मुनीश्वर! जब अज्ञान रूपी मेघ गर्जता है तब लोभरूपी मोर प्रसन्न होकर नृत्य करता है। जब अज्ञानरूपी मेघ वर्षा करता है तब दुःखरूपी मञ्जरी बढ़ने लगती है, लोभरूपी बिजली क्षण क्षण में उत्पन्न होकर नष्ट हो जाती है और तृष्णारूपी जाल में फँसे हुए जीवरूपी पक्षी पड़े दुःख पाते हैं—शान्ति को प्राप्ति नहीं होते। हे मुनीश्वर! यह जगरूपी बड़ा रोग लगा है उसके निवारण करने का कौन सा उपाय है? जो पाने योग्य है और जिससे भ्रमरूपी रोग निवृत्त हो वह उपाय कहिये। यह जगत् मूर्ख को रमणीय दीखता है। ऐसे पदार्थ पृथ्वी, आकाश, देवलोक और पाताल में भी नहीं जो ज्ञानवान् को रमणीय दीखें। ज्ञानवान् को सब भ्रमरूपी भासता है और अज्ञानी जगत् में आस्था करता है। हे मुनीश्वर! चन्द्रमा में जो कलङ्क है उससे सुन्दरता नहीं रहती। जब कलङ्क दूर हो जाय तब सुन्दर लगे वैसे ही मेरे चित्तरूपी चन्द्रमा में कामरूपी कलङ्क लगा है इससे वह उजवल नहीं भासता। आप वही उपाय कहिये जिससे कलङ्क दूर हो। हे मुनीश्वर! यह चित्त बहुत चञ्चल है, स्थिर कदाचित् नहीं होता। जैसे अग्नि में डाल दिया पारा उड़ जाता