पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७७०

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योगवाशिष्ठ। और उसमें जो संवित्मात्र बानस्वरूप अनुभव से प्रकाशता है वह मनुष्य को प्रहण करने योग्य है जो भीतर बाहर व्याप रहा है और वास्तव में भीतर बाहर से भीरहित है वही प्रधान हृदय है और सब पदार्थों का प्रतिबिम्ब घरनेवाला मादर्श है। सव सम्पदा का भण्डार और सब जीवों का संवित् हृदय वही है, एक भङ्ग का नाम हृदय नहीं । जैसे जल में एक पुरातन पत्थर पड़ा हो तो वह जल नहीं हो जाता तैसे ही संवित्मात्र के निकट संचिवमात्र तो नहीं होता ? यह जरूप है औरमात्मा चेतन्य माकारा है। इस प्रधान हृदय से बल करके संविमात्र की भोर चित्त लगावे तब प्राण स्पन्द भी रोका जावेगा। हे रामजी! यह प्राणों का रोकना मैंने तुमसे कहा है और भी शामों में भनेक प्रकार से कहा है पर जिस-जिस प्रकार मुरु के मुख से सुने उसी प्रकार अभ्यास करे तब पाणों का निरोध होता है, गुरु के उपदेश से अन्यथा सिद्ध नहीं होता। जिसको अभ्यास करके निरोप सिद्ध हुमा है वह कल्याणमूर्ति है और कोई कल्याणमूर्ति नहीं होता। हे रामजी ! अभ्यास करके प्राणायाम होता है और वैराग्य की दृढ़ता से वासना क्षय होती है अर्थात् वासना रोकी जाती है। जब हद अभ्यास करे तब चित्त मचित हो जाता है। हे रामजी! भृकुटी के दशभंगुल पर्यन्त जो वायु जाता है उसका बारम्बार जबअभ्यास करते हैं तब वह वीण हो जाता है और खेचरीमुद्रा अर्थात् तालु से जिहा लगा करके जो अभ्यास करे तो भी पाण रोके जाते हैं। इसके अभ्यास से चित्त की व्याकुलता जाती रहती है और परम उपशम को प्राप्त होता है । जो यह अभ्यास करता है वह पुरुष मात्मारामी होता है, उसके सब शोक दूर हो जाते हैं और हृदय में प्रानन्द को प्राप्त होता है। इससे तुम भी अभ्यास करो।जब प्राणस्पन्द मिट जाता है तब चित्त भी स्थित हो जाता है, उसके पीछे जो पद है सोही निर्वाणरूप है। हे रामजी!जब प्राणस्पन्द मिट जाते हैं तब विस भी स्थित हो जाता है। और जब चित्त स्थित हुमा तब वासना नष्ट हो जाती है, जब वासना नष्ट होजातीहेतवमोक्ष की प्राप्ति होती है। जबतक चित्तवासना से लिपा है तबतक जन्म मरण देखता है और जवमनवासनासे रहित होता है तब मोष होता है। हे रामजी पाणवायु को रोककर वासना से रहित हो