पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७७१

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उपशम प्रकरण। जहाँ तुम्हारी इच्छा हो वहाँ विचरोतोतुमको बन्धन न होगा। जब प्राण फुरता है तब मन उदय होता है और जब मन उदय हुमा तब संसारभ्रम होता है जब मनक्षीण होता है तब संसारभ्रमनष्ट हो जाता है। हे रामजी! जब मन से संसार की वासना मिट जाती है तब पशब्द पद प्राप्त होता है। जिससे यह सर्व है, और जो यह सर्व है, जिससे न सर्व है और जो न सर्व है, जो न सर्व में है और जिसमें न यह सर्व है ऐसा जो निर्गुण- तत्त्व हे सो सर्वकलना के त्यागे से प्राप्त होता है उसको उपमा किसकी दीजे ।मात्मा अविनाशी, निर्विकल्प और निर्गुण है, यह जगत् नाश- रूपी संकल्प से रचित गुणरूप है, उसका किस पदार्थ से दृष्टान्त दीजे ? अर्थात् दूसरा कुछ नहीं, जितने कुछ स्वाद हैं उनको स्वादकर्ता वही है और जितने प्रकाश हैं उनको प्रकाश वही है, सर्वकलना का कलना. रूप वही है और जितने पदार्थ हैं उन सबका अधिष्ठानरूप वही है । वह चित्त भोर भावरण के दूर हुए प्राप्त होता है और सब पदार्थों की सीमा वही है। ऐसा जो प्रात्मरूप शीतल चन्द्रमा है जब उसमें बुद्धिमान स्थित होता है तब जीवन्मुक्त कहाता है और उसकी मब इच्छा भोर पाश्चर्य नष्ट हो जाता है, अहं त्वं भादिक कल्पना मिट जाती है, सर्व व्यवहार विस्मरण होजाता है। ऐसाजो मुक्तमन है सो पुरुषोत्तम होता है। इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे जीवन्मुक्तबानवन्धो नाम त्रिसप्ततितमस्सर्ग ॥७३॥ रामजी ने पूछा, हे प्रभो। योग की युक्ति तो मापने कही जिससे चित्त उपशम होता है अव सम्यक्सान का लक्षण भी कृपा करके कहिये। वशिष्ठजी बोले. हे रामजी! यह तो निश्चय है कि भात्मा मानन्दरूप, मादि- भन्त से रहित, प्रकाशरूप, सर्व परमात्मातत्व है इसी निश्चय को बुद्धी- श्वर सम्यक्सान कहते हैं। यह जो घट पटादिक अनेक पदार्थशकि? वह सब परमानन्दरूप मात्मा है उससे भिन्न नहीं। यह सम्यक्वानी की दृष्टि है । मोर सर्वात्मा नित्य,शुद्ध, परमानन्दस्वरूप, सदा अपने आपमें स्थित है ऐसा निश्चय सम्यक्सान है और जो इससे भिन्न है सो असम्यक्- जान है। हे रामजी । सम्यक्दर्शीको मोल है और मसम्पर्शी कोबन्ध है,