पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

उपशम प्रकरण। वशिष्ठजी बोले, हे रामजी ! विवेकी पुरुष को जो भोग निकट मा प्राप्त होते हैं तो भी उनकी इच्छा नहीं करता, क्योंकि उसको उसमें अर्थबुद्धि नहीं-जैसे चित्र की लिखी हुई सुन्दर कमलिनी के निकट भँवरा भान प्राप्त होता है तो भी उसकी इच्छा नहीं करता। हे रामजी । सुख दुःख की माप्ति और निवृत्ति में इच्छा तबतक होती है जबतक देहाभिमान होता है, जब देहाभिमान निवृत्त हुमा तब कुछ इच्छा नहीं होती। हे रामजी! ममता करके दुःख होता है, जब रूप को नेत्र देखता है तब उसको इष्ट मानकर प्रसन्न होता है और भनिष्ट मानकर देष करता है जैसे बेल भारवाहक की चेष्टा करता है उसको लाभ और हानि कुछ नहीं और जिसको उसमें ममत्व होता है वह लाभ-हानि का हर्ष-शोक करता है, तेसे ही ममत्व से जीव इन्द्रियों के विषयों में हर्ष शोकवान होता है। जैसे गर्दभ कीचड़ में डूबे और राजा शोक करे कि मेरे नगर का गर्दभ डूबा है, तेसे ही ममत्व करके इन्द्रियों के विषयों में जीव दुःख पाता है, नहीं तो गर्दभ कीचड़ में ड्वे तो राजा का क्या नष्ट होता है । हे रामजी। यह इन्द्रियाँ तो अपने विषयों को ग्रहण करती हैं और इनमें जीव तपाय- मान होता है सोही पाश्चर्य है। जिन विषयों की जीव चेष्टा और इच्छा करते हैं सो क्षण में नष्ट हो जाते हैं। हे रामजी! जो मार्ग में किसी के साथ स्नेह हो जाता है तो ममत्व और प्यार से दुःख होता है। जो देह में ममत्व करेगा उसको दुःख क्यों न होगा ? चाहे कैसा ही बुद्धिमान हो वा शूरमा हो तो भी संग से बन्धवान होता ही है अर्थात् इन्द्रियों के विषयों का महंममभाव ग्रहण करेगा तो उनके नाश होने से वह भी नष्ट होवेगा। जिन नेत्रों का विषय रूप है सो नेत्र साक्षी होकर रूप को प्रहण करता है और जीव ऐसा मूर्ख है कि मोरों के धर्म आपमें मान खेता है और उनमें तपायमान होता है। जैसे भ्रम दृष्टि से आकाश में मोर पुच्छवत् तरुवरे और दूसरा चन्द्रमा भासता है, तैसे ही मूर्खता से जीव इन्द्रियों के धर्म अपने में मान लेता है। जैसे इन्द्रियों का साक्षी होकर जीव विषयों को ग्रहण करता है वैसे ही चित्त भी अभिमान से रहित साक्षी होकर प्रहण करे तो रागद्वेष से तपायमान न हो जैसे जल