पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७७४

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योगवाशिष्ठ में चक्र तरङ्ग फरते दृष्टि पाते हैं तैसे ही इन्द्रियों में और इन्दियाँ फुर भाती हैं, प्राधार भाषेय से इनका सम्बन्ध होता है और चित्त इनके साथ मिलकर व्याकुल होता है।रूप,इन्दिय और मन इनका परस्पर मिष भाव है जैसे मुख, दर्पण और प्रतिविम्ब भिन्न-भिन्न प्रसंग है तैसे ही यह भी भिन्न भिन्न मसंग हैं परन्तु भवान से मिले हुए भासते हैं। जैसे खास से सोने, रूपे और चीनी का संयोग होता हे तैसे ही प्रज्ञान से रूप भव. लोक और मनस्कार का संयोग होता है । जब ज्ञान भग्नि से अज्ञान- रूपी लाख जल जावे तब परस्पर सब भिन्न-भिन्न हो जाते हैं और फिर किसी का दुःख सुख किसी को नहीं लगता। जैसे दो लकड़ी का संयोग खाख से होता है तेसे ही प्रज्ञान से विषय इन्द्रियों और मन का संयोग होता है और ज्ञानरूपी भग्नि से जब बिछुर जाते हैं तब फिर नहीं मिलते। जैसे माला के भिन्न-भिन्न दाने तागे में इकट्ठे होते हैं तैसे ही देह और इन्द्रियों में प्रज्ञान से मेल होते हैं और जब विचार करके तागा टूट पड़े तब भिन्न-भिन्न हो जावे फिर न मिले । हे रामजी! जिन पुरुषों को मात्मविचार हुआ है वे ऐसे विचारते हैं कि हमको दुःख देनेवाला चित्त था और चित्त के नष्ट हुए भानन्द हुमा है। जैसे मन्दिर में दुःख देनेवाला पिशाच रहता है तब दुःख होता है।नहीं तो मन्दिरदुःख नहीं देता। पिशाच ही दुःख देता है, तैसे ही शरीररूपी मन्दिर में दुःख देनेवाला चित्त ही है। हे चित्त ! तूने मिथ्या मुझको दुःख दिया था। अब मैंने आपको जाना है। तू मादि भी तुच्छ है, अन्त भी तुच्छ है और वर्तमान में भी मिथ्या जीवों को दुःख देता है। जैसे मिथ्या परछाही बालक को वैताल होकर दुःख देती है-बड़ा आश्चर्य है । हे चित्त तू तबतक दुःख देता है जबतक प्रात्मस्वरूप को नहीं जाना।जब मात्मस्वरूप काहान होता है तब तू कहीं दृष्टि नहीं होता। तू तो माया मात्र है। स्थिर हो अथवा जा, मैं अब तुझसे मोहित नहीं होता। तू तो मूर्ख जड़ भोर मृतक है और तेरा भाकार भविचार से सिद्ध है। अब मैने पूर्व का स्वरूप पाया है, तू तत्त्व नहीं, भ्रान्तिमात्र है जो मूद है वह तुझसे मोहित होता है, विचारवान मोहित नहीं होता।जैसे दीपक से अन्धकार दृष्टि नहीं भाता, तैसे ही ज्ञान से तू