पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७८

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योगवाशिष्ठ।

है वैसे चित्त भी स्थिर नहीं होता, विषय की ओर सदा धावता है। इससे भाप वही उपाय कहिये जिससे चित्त स्थिर हो। संसाररूपी वन में भोगरूपी सर्प रहते हैं और जीव को काटते हैं उनसे बचने का उपाय कहिये। जितनी क्रिया हैं वे राग-द्वेष के साथ मिली हुई हैं, इससे वही उपाय कहिये जिससे राग-द्वेष का प्रवेश न हो और संसारसमुद्र में पड़के तृष्णारूपी छल का स्पर्श न हो। और ऐसा उपाय भी कहिये जिससे राग-द्वेष का स्पर्श न हो। मन में जो मनरूपी सत्ता है वह युक्ति से दूर होती है, अन्यथा दूर नहीं होती। उसकी निवृत्ति के अर्ष आप मुझसे युक्ति कहिये और आगे जिसको जिस प्रकार निवृत्ति हुई है और जिस प्रकार आपके अन्तःकरण में शीतलता हुई वह कहिये। हे मुनीश्वर! जैसे आप जानते हैं सो कहिये और जो आपने ही वह युक्ति नहीं पाई तब मैं तो कुछ नहीं जानता। मैं सब त्यागकर निरहंकर हो रहुँगा और जब तक वह युक्ति मुझको न प्राप्त होगी तब तक मैं भोजन जलपान और स्नानादिक किया और किसी सम्पदा और आपदा का कार्य न करूँगा, निरहंकार होऊँगा। यह न मेरी देह है, न मैं देह हूँ, सब त्याग के बैठा रहूँगा। जैसे कागज के ऊपर मूर्ति चित्रित होती है वैसे ही हो रहूँगा। श्वास आते जाते आप ही क्षीण हो जायँगे। जैसे तेल बिना दीपक बुझ जाता है वैसे ही अनर्थवान देह निर्वाण हो जायगा तब महाशान्ति पाऊँगा। इतना कहकर वाल्मीकिजी बोले, हे भारद्वाज! ऐसे कहकर रामजी चुप हो रहे। जैसे बड़े मेघ को देखके मोर शब्द करके चुप हो जाता है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे वैराग्यप्रकरणे अनन्यत्यागदर्श
नन्नाम षड्विंशतितमस्सर्गः॥२६॥

इतना कहकर वाल्मीकिजी बोले हे पुत्र! जब इस प्रकार रघुवंशरूपी आकाश के रामचन्द्ररूपी चन्द्रमा बोले तब सब मौन हो गये और सबके रोम खड़े हो गये, मानो रोम भी खड़े होकर रामजी के वचन सुनते हैं और सभा में जितने बैठे थे वे सब निर्वासनारूपी अमृत के समुद्र में मग्न हो गये। वशिष्ठ, वामदेव, विश्वामित्र आदि जो मुनीश्वर थे और दृष्टि