पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७८०

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योगवाशिष्ठ। भाव कैसे हो और जो तू जड़ और प्रसवरूप है तो कर्चा मोक्का कैसे हो और जो चेतन और सतरूप है तो भी तेरे में कर्तृत्व भोक्तृत्व नहीं हो सकता, क्योंकि तू मिथ्या है और मैं प्रत्यक्ष चैतन्य है।तू कर्तृत्व भोक्तन पिण्या अपने में स्थापन करता है, तू मिथ्या है। जब मैं तुझको सिद्ध करता हूँ तबत होता है त निश्चय करके जड़ है, तुमको कर्तृत्व भोस्तृत कैसे हो जैसे पप्पर की शिला नृत्य नहीं कर सकती तैसे ही तुमको कर्तृत्व की सामर्थ्य नहीं। तेरे में जो कर्तृत्व है सो मेरी शक्ति है-जैसे इसुचा घास, तृण भादिक को काटता है सो केवल मापसे नहीं काटता पुरुष की शक्ति से काटता है चोर खा में जो हनन किया होती है वह भी पुरुष की शक्ति है, तैसे ही तुम्हारे में कर्तृत्व भोस्तृत्व मेरी शक्ति से है । जैसे पात्र से जलपान करते हैं तो पात्र नहीं करता, पान पुरुष ही करता है और पात्र करके पान करता है तेसे ही तुम्हारे में कर्तृत्व भोक्तृत्व मेरी शक्ति करती है और मेरी सता पाकर तुम अपनी पेष्टा में विचरते हो। जैसे सूर्य का प्रकाश पाकर लोग अपनी अपनी बेष्टा करते हैं तैसे ही मेरी शक्ति पाकर तुम्हारी चेष्टा होती है। भवान करके तुम जड़ से रहते हो और बान करके लीन हो जाते हो। जैसे सूर्य के तेज से बरफ का पुतखा गल जाता है। इससे हे चित्त ! भाव मैंने निश्चय किया है,तू मृतकरूप और मूद है । परमार्थ से न तू है भोर न इन्द्रियाँ हैं। जैसे इन्द्रजाल की बाजी के पदार्थ भासते हैं सो सब मिथ्या है। मैं केवल विज्ञानस्वरूप अपने भाप में स्थित निरामय, मजर, अमर, नित्य, शुद्ध, बोध, परमानन्द रूप हूँ और में ही नानारूप होकर भासता हूँ, परन्तु कदाचित् दैतभाव को नहीं प्राप्त होता सदा अपने भापमें स्थित हूँ। जैसे जल में तरङ्ग बुबुदे दृष्टि पाते हैं सो जबरूप है तैसे ही सब पदार्थ मेरे भासते हैं सो मुझसे भिन्न नहीं । हे चित्त तू भी चिन्मात्रमाव को पास हो, जब तू चिन्मात्रभाव को पास होगा तब तेरा भिन्नभाव कुछ न रहेगा और शोक से रहित होगा।मात्मतत्व सर्व- भाव में स्थित और सर्वरूप है, जब तू उसको पास होगा तब सब कुछ तुमको प्राप्त होगा। न कोई देह है और न जगत् है सब ब्रह्म ही है, ब्रह्म