पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७८१

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, उपसम प्रकरण ७७५ ही ऐसे भासता है, वास्तव में महं वं कल्पना कोई नहीं। हे चित्त । मात्मा चैतन्यरूप मोर सर्वगत है, भात्मा से भिन्न कुब नहीं तो भी तुझको संताप नहीं और जो अनात्मा, जड़ और भसवरूप है तो भी तू न रह । जो कुछ परिच्छिन्न सा तू बनता है सो मिथ्या भ्रम है, मात्म- तत्त्व सर्वव्यापकरूप है देत कुछ नहीं और सर्व वही है तो मित्र अहं लं की कल्पना कैसे हो? असद से कार्य की सिद्धता कुछ नहीं होती।जैसे शशे के सींग असत् है और उनके मारने का कार्य सिद्ध नहीं होता तैसे ही तुमसे कर्तृत्व भोक्तृत्व कार्य कैसे हो और जो तू कहे कि मैं सत्- असत् मोर चेतन-जड़ के मध्यभाव में -जैसे वम मोर प्रकाश का मध्य- भाव बाया है-तोसूर्यरूप परमात्मा निरुजन के विद्यमान रहते मन्दभावी बाया कैसे रहे जिससे कर्तृत मोक्तृत तुझको नहीं होता, क्योंकित जद है। जैसे हसुभा अपने पाप कुछ नहीं काट सकता जब मनुष्य के हाथ की शक्ति होती है तब कार्य होता है, तेसे ही तुमसे कुछ कार्य नहीं होता जब मात्मसता तुमसे मिलती है तब तुमसे कार्य होता है। तुम क्यों महंकार करके पातपायमान होते हो। हे चित्त । जो तुकडे किश्वर का उपकार हे तो ईश्वर जो परमात्मा हे उसको करने न करने में कुब प्रयोजन नहीं। सबका कर्चा भी वही हे और भकर्ता भी वही है। जैसे भाकाश पोल से सबको पखवा देनेवाला है परन्तु स्पर्श किसी से नहीं करता तेसे ही परमात्मा सब सवा देनेवाला है और अलेप है। हे मूर्ख मन क्यों ! भोगों की वाञ्छा करता है ? तू तो जड़ भोर असत्- रूप है और देह भी जड़ प्रसवरूप है, भोग कैसे भोगोगे और जो पर- मात्मा के निमित्त इच्छा करते हो तो परमात्मा तो सदा तृप्त है और इच्छा से रहित है। सर्व में वही पूर्ण है और दूसरे से रहित एक भदेत प्रकाशरूप अपने भापमें स्थित है-तुझको किसकी चिन्ता है ? इससे वृथा कल्पना को त्यागकर भात्मपद में स्थित हो-जहाँ सर्व क्लेश शान्त हो जाते हैं। जो तू कहे कि परमात्मा के साथ मेरा कर्तृत्व भोक्तृत्व सम्बन्ध है तो भी नहीं बनता-जैसे फूल और पत्थर का सम्बन्ध नहीं होता तसे ही परमात्मा के साथ तेरा सम्बन्ध नहीं होता। समान अधि-