पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७८३

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उपशम प्रकरण। ७७५ नहीं। जिनका परस्पर विरोध है उनका सम्बन्ध कैसे हो ? तुम तो परमात्मा के भवान से मन इन्द्रियाँ भौर देहादिक सहित उदय हुए हो और भात्मा के वान से प्रभाव हो जाते हो फिर सम्बन्ध कैसे हो ? हे मन ! जो कुछ जगत् है वह सब ब्रह्मस्वरूप है-देत नहीं और अहं त्वं की कल्पना भी कोई नहीं । ब्रह्मसत्ता अपसे भापमें स्थित है, सब कलना तेरे में थी और तू तबतक था जबतक स्वरूप का भवान था। जब स्वरूप का बान होता है और मवान नष्ट होता है तब तू कहाँ है । जैसे गत्रि के प्रभाव मे निशाचरों का प्रभाव हो जाता है तैसे ही अज्ञान के नाश हुए तेरा प्रभाव हो जाता है। इति श्रीयोगवाशिष्ठेउपशमप्रकरणे बीतवोपाख्याने चित्तानुशासन- नाम सप्तसप्ततितमस्सर्गः॥७७॥ वशिष्ठजी बोले, हे रामजी । इस प्रकार वीतव मुनीश्वर विन्ध्याचल पर्वत की कन्दरा से तीक्ष्णबुद्धि से विचारने लगे और और भी जो कुछ उसने कहा है सो सुनो। अनात्मा जो देह इन्द्रियाँ मनादिक हैं वे संकल्प से उपजे हैं, जब ज्ञान उदय होता है तब इनका प्रभाव हो जाता है। हे मन ! जैसे सूर्य के उदय हुए तम नष्ट हो जाता है तैसे ही नित्य उदित- रूप अनुभवस्वरूप परमात्मज्ञान के उदय हुए तुम्हारा प्रभाव हो जाता है। वासना से उसका प्रावरण होता है और जब वासना का प्रभाव हो जाता है तब आवरण का भी प्रभाव हो जाता है। जैसे मेघ के नष्ट हुए सूर्य प्रकाशता है तैसे ही वासना के प्रभाव हुए भात्मतत्त्व प्रकाशता है। वासना का मूल भज्ञान है, जब मनानसहित वासना नष्ट होती है तब चिदानन्द ब्रह्म प्रकाशता है । वासना ही का नाम बन्ध है और वासना की निवृत्ति का नाम मोष है। जब वासनारूपी रस्सी काटोगे तब पर- मात्मा का साक्षात्कार होगा। जैसे प्रकाश विना अन्धकार का नाश नहीं होता तैसे ही मन, इन्द्रियाँ, देहादिकमात्मविचार विना नाश नहीं होती । जब विचार करके भात्मपद प्राप्त हो तब मन सहित षट् इन्द्रियों का प्रभाव हो जाता है अर्थात् इनका अभिमान नष्ट होता है और इनके धर्म अपने में नहीं भासते। जबतक देह इन्द्रियों के साथ भावरण है तब