पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७८४

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, योगवाशिष्ठ। खगमात्मपद नहीं पास हो सकता, इससे कल्याण के निमित्तमात्मपद पाने कामभ्यास करो।जबतक जीव मन भौरइन्द्रियों के गुणों के साथ आपको मिला जानता है तबतक अपने स्वरूप की विभुता और सिद्धता नी मासती, जब मात्मा का साक्षात्कार हो जावेगा तब रागदेषादिक विकार नष्ट होंगे। जैसे सूर्य के उदय हुए निशाचरों कामभाव हो जाता है तैसे ही मात्मा के साक्षात्कार हुए विकारों का प्रभाव होता है । जिसके देखे से इनका प्रभाव हो जाता है उसकामात्मा के साथ सम्बन्ध कैसे हो जैसे प्रकाश और तम का सम्बन्ध नहीं होता तेसे ही सत् असत् का सम्बन्धनहीं होता भोर जैसे जीव से मृतकका सम्बन्ध नहीं होता तैसेहीमात्मा मनात्मा का सम्बन्ध नहीं होता। भात्मा सर्वकल्पना से रहित है और मन मादिक सर्व कल्पनारूप हैं। कहाँ यह मूक, जड़ और अनात्मारूप भोर कहाँ नित्य, चेतन, प्रकाश, निराकार,मात्मारूप, इनका परस्पर विरोध रूप हे तो सम्बन्ध केसे कहिये-ये तो निश्चय करके अनर्थ के कारण है। जब तक इनका अभिमान है तबतक जगत् दुःखरूप है और जब इनका वियोग हो तब जगत् परमात्मरूप होता है । जबतक मात्मा का भक्षान है तबतक मनुष्य भापको इनमें मिला देखता है और दुःख पाता है और जब भात्मा का बान होता है तब अपने साथ इनका संयोग नहीं देखता यह मैंने निश्चय करके जाना है कि इन्द्रियाँ भौर मन के संयोग से जगत् भासता है और जब इन्द्रियों का प्राम नष्ट हो जाता है तब जगद परमात्मरूप हो जाता है । मैं जो मात्मा, मन, और इन्द्रियों को इकट्ठा जानता था सो प्रमादरूपी मद्य के पान से मत्त हुभा मन से जानता था। भव भात्मविचार से मन नष्ट हुभा तब सुखी हुआ हूँ। जो विष को पान करके मूञ्चित हो सोतो बनता है परन्तु पान किये विना मूच्छित हो सो पाश्चर्य है। इससे यदि मनात्मा का इसके साथ संयोग होता होतो सुख दुःख करके राग देषवान होना भी बनता पर भात्मा तो सुख दुःख का सावीभूत है। सुख का संयोग ही जिससे नहीं भोर रागदेष से जलता है तो महामूर्खता है । प्रात्मा तो सुख दुःख का साक्षीभूत है जैसे उसके मागे अभ्यास होता है तेसा ही भासता है, कदाचित् विपर्ययभाव को