पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७८५

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उपसमप्रकरण। नहीं प्राप्त होता सुख दुःख में मूर्ख मन राग देवान होता है। मात्मा तो सदा साथीभूत वीणवृत्ति है उसके साथ इन्द्रियों का संयोग कैसे हो। भव जो संयोग का प्रभाव सिद्ध हुमा तो मात्मा में कर्तृत्व भोक्तृत्व कैसे कहिये ? जहाँ चित्तकलना होती है वहाँ कर्तृत्व भोक्तृत्व भी होता है और जहाँ चित्तकलना का प्रभाव है वहाँ कर्तृत्व मोक्तृत्व का भी प्रभाव है। ऐसा निष्कला भास्मतत्त्व में हूँ किन कर्ता हूँ, न भोक्ता हूँ, न मेरे बन्ध है,न मोक्ष है, न हन्ता है,न भहन्ता है, मैं सर्वात्मा अलेपरूप हूँ।हे मन ! तू भी मैं हूँ और पृथ्वी, भपू, तेज, वायु, आकाश पाँचो तत्व भी मैं ही हैं। इस प्रकार निर्णय करके जिसने धारा है वह मोह को नहीं प्राप्त होता। जो महंमभिमान करनेवाला मात्मा से आपको भिन्न जानता है वह दुःखी होता है और जब अपने स्वभाव में स्थित होता है तब परमसुखी होता है । इससे जिसको कल्याण की इच्छा हो उसको एक मात्म (परमात्म) परायण होना योग्य है । जब स्वरूप को त्यागकर संकल्प की भोर धावता है तब दुखों के समूह को प्राप्त होता है। हे चित्त। जो तू अपने में कर्तृत्व देखता था सो इन्द्रियों सहित जदरूपः पत्थर के समान है-जैसे भाकाश में पवन नहीं लगता तैसे ही तुमसे कर्तृत्व नहीं होता। जब स्वरूप का प्रमाद होता है तब जीव चित्त भादिक से मापको मिला जानता है और चित्तादिक मात्मा की सत्ता पाकर चेतन होता है। जैसे अग्नि की सत्ता पाकर लोहा भी जला सकता हे तैसे ही तुम मात्मा की सत्ता पाकर कर्तृत्वभोक्तृत्व में समर्थ होते हो । जब भात्मविचार करके स्वरूप का साक्षात्कार होता है, भवानवृत्ति निवृत्त हो जाती है और मनादि का वियोग होता है तब सर्वकलना से रहित हुमा केवल मोक्षरूप प्रात्मा होता है और कर्तृत्व भोक्तृत्व का प्रभाव हो जाता है। जैसे प्राकाश में लाली का प्रभाव हे तैसे ही मात्मा में कर्तृत्व का प्रभाव है । सब जगत् मात्मस्वरूप भासता है। जैसे समुद्र तरङ्ग भादिक नाना प्रकार से होता है सो सब जलरूप है- मित्र नहीं, तैसे ही सर्वजगत् भात्यारूप है-मात्मा से भिन्न नहीं। सचिदानन्द मात्मा मैं अपने भापमें स्थित हूँ और दैतकलना मेरे में