पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

७७९ योगवाशिष्ठ। कोई नहीं । जैसे समुद्र उष्णता से रहित है तैसे ही परमात्मा सर्वकलना से रहित है और जैसे भाकाश में वन नहीं होता तैसे ही परमात्मा में कलना नहीं होती, वह संवेदन से रहित, संवितमात्र सर्वात्मा है, जब उसका साक्षात्कार होता है तब अहं त्वं मादिक कलना का अभाव हो जाता है। वह अनादि, अरूप, सर्वगत, सदा अपने भापमें स्थित है, ऐसा जो भदेत तत्त्व है उसको देतकल्पना भारोपने को कोन समर्थ है। ऐसा कोन है जो भाकारा में ऋग्वेद लिखे १ नित्य उद्यति. सर्व का सार, प्रदेत भात्मा है उसमें देत का प्रभाव है और सबमें पूर्ण, निर्मल, नित्य मानन्दरूप है ऐसे मात्मा को अब मैं पास हुभा हूँ जगद का सुख दुःख भव नष्ट हुभा हे सम शान्तरूप हुमा हूँ। इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे वीतवोपाल्पाने अनुशासनयोगोप- देशो नामाष्टसप्ततितमस्सर्गः॥७॥ वशिष्ठजी बोले, हेरामजी । इस प्रकार वीतव मुनि श्रेष्ठ विचार करताथा फिर जो कुछ वह निर्मल बुद्धि से विचारने लगा सो भी सुनो। हे इन्द्रिय- रूप मन ! तुम क्यों अपने भयों की भोर धावते हो ? तुमको तो विषयों से शान्ति नहीं होती-जैसे मृग मरुस्थल की नदी देखकर दौड़ता है और शान्तिमान नहीं होता। इससे तुम भी विषयों की भोर तृष्णा करने से शान्तिमान न होगे।इनकी इच्छा त्यागकर जो परमात्मतत्व भविनाशी सर्व अवस्था में एकरस और सत्य है उसको ग्रहण करोतब सब दुःख तुम्हारे मिट जावेंगे। तुम्हारे साथ में मिला था तब मैंने भी दुःख पाया । तुम मजान से उत्पन्न हुए हो और जो तुम्हारे साथ मिलता है उसको भी दुःख प्राप्त होता है। जैसे तपी हुई लाख जिसके शरीर से स्पर्श करती है उसको जलाती है तैसे ही जिसको तुम्हारा संग हुआ है वह दुःख पाता है। हे मन ! यह जीव तुम्हारे संग से काल के मुख में जा पड़ता है। जैसे नदी जल सहित होती है तब समुद्र की भोर चली जाती है-जब से रहित हो तो क्यों जावे, वैसे ही तुम्हारे संग करके जीव काल के मुख में जा पड़ता है, तुम्हारा संग न हो तो क्यों पड़े? जैसे मेष कुहिरे से सूर्य को घेर लेता है, तैसे ही मनरूपी मेघ इच्छारूपी कुहिरे से