पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७८७

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उपशम प्रकरण। ७७६ मात्मारूपी सूर्य को घेर लेता है और परम्परा दुःखों की वर्षा करनेवाला है।हे मन । तेरे में चिन्ता उठती है इससे तू मर्कट की नाई है। जैसे मर्कट वृक्ष को ठहरने नहीं देता, हिलाता है तेसे ही चित्त देह को ठह- रने नहीं देता। चित्तरूपी पखेरू के लोम और खबा दो पंख हैं और रागदेषरूपी चोंच है जिससे शरीररूपी वृक्ष पर बैठा शुभगुणों को काट- काटकर खाता है। चित्तरूपी महानीच कुत्ता भोगभावनारूपी महामपवित्र पदायों को हृदयरूपी स्थान में इकट्ठा करता है और ऐसी चेष्टा से कदा- चित् रहित नहीं होता। चित्तरूपी उलूक भवानरूपी रात्रि में विचरता है, चेष्टा करके प्रसन्न होता है और शब्द करता है। जैसे श्मशान से वैताल शब्द करता है। जब भवानरूपी रात्रि नष्ट हो तब चित्तरूपी उलूक का भी प्रभाव हो और सम्पदा भान प्रवेश करे। जैसे सूर्य के उदय हुए सूर्यमुखी कमल उदय होता है तैसे ही सम्पदा प्रफुल्लित होती है। जब मोहरूपी कुहिरा मोर इच्छारूपी पलि हृदयरूपी माकारा से निवृत्त होती हे तब निर्मल भाकाश प्रकट होता है । हे चित्त ! जब तक तू नष्ट नहीं होता तबतक शान्ति नहीं होती । स्वस्थ बैठे हुए जो चिन्ता प्राप्त होती हे वह तेरे ही संयोग से होती है। जहाँ चित्त नष्ट होता है तहाँ सर्व भानन्द होकर शीतलता और मित्रता से पावन होता है। जैसे शीत- काल का भाकाश निर्मल होता है और मेघ के नष्ट हुए सूर्य प्रकाशता हे तैसे ही भवान के नष्ट हुए भात्मा में प्रकाशता और प्रसन्नता,गम्भीरता, महत्त्वता भोर समता होती है। जैसे वायु भोर मन्दराचल पर्वत से रहित धीरसमुद्र शान्तिमान होता है और पूर्णमासी का चन्द्रमा शोभता है तैसे ही भवान के नाश हुए प्रात्मानन्द पाकर यह मनुष्य शोभता है। हे चित्त ! यह स्थावर-जंगम जगत् संविवरूप माकाश में है। उस महत् ब्रह्म को तुम भी पास हो । जो पुरुष पाशारूपी फाँसी को तोड़कर भात्म. पद में प्राप्त हुमा है और जिसने संसार का सद्भाव निवृत्त किया है वह जन्म-मरण के बन्धन में नहीं पड़ता। जैसे जला हुमा नहीं होता तैसे ही चित्त नष्ट हुमा जन्म-मरण नहीं पावता । हे चित्त । तू सबको भक्षण करनेवाला है। जो तू संसार को सत् मानकर उसकी फिर हरा