पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७८९

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उपशम प्रकरण। ७८१ रूप हूँ, सब ताप मेरे नष्ट हुए हैं और नित्यशुद्ध चिदानन्द परब्रह्मस्व- रूप हूँ। जगत् की सत्य-असत्य कखना मेरी नष्ट हुई है, क्योंकि कलना सब चित्त में थी, जब चित्त निर्वाण हो गया तब कलना कहाँ रही ? मैं केवल शुद्ध मात्मा हूँ मेरा प्रतियोगी कोई नहीं भौर न व्यवच्छेद है, क्योंकि दूसरा कोई नहीं केवल चित्त की चेतना फुरती थी सो निर्वाण हो गई है और अब मैं स्वस्थ हुमा हूँ। जैसे तरनों से रहित समुद् अवल होता है तैसे ही सर्वकलना से रहित में वीतराग हूँ और संवेदन से रहित समसचामात्र अपने पापमें स्थित हैं। इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे वीतवोपाख्याने चित्तोपदेशोनाम- कोनाशीतितमस्सर्गः ॥७९॥ वशिष्ठजी बोले, हे रामजी। इस प्रकारचीतव ने निर्वासनिक हो निर्णय करके विन्ध्याचल पर्वत की कन्दरा में समाधि लगाई और माकाशवत् निर्मलचित्त हो इन्द्रियों की बचि बाहर से खींचकर अचल की और फिर श्रीवा को सम करके चित्त की वृति अनन्तमात्मा साक्षीभूत में स्थित की। जैसे लकड़ियों को जलाकर अग्नि की ज्वलाशान्त हो जाती है तैसे ही उसके प्राण और मन की वृत्ति का स्पन्द मिट गया और जैसे शिला में खोदी हुई पुतली होती है और मूर्ति की लिखी हुई पुतली होती है तैसे ही स्थित हो गया। मेघों की वर्षा शिर पर हो, मण्डलेश्वर शिकार खेलें बड़े शब्द हों, रीछ और वानर शब्द करें, बारहसिंहों और हाथियों के शब्द हों, वन में अग्नि लगे, पत्थरों की वर्षा हों, वायु चले और धूप पड़े तो भी वह समाधि से न जागे और जैसे पहाड़ में शिला दबी होती है तेसे ही उसका शरीर दब गया। जब तीन सौ वर्ष इसी प्रकार व्यतीत हुए तबचित्त फर पाया कि शरीर मेरे साथ है परन्तु माण नहीं फुरे और चित्त के फुरने में भापको कैलास पर्वत के ऊपर भोर कदम्ब के वृक्ष के नीचे देखा। सौ वर्ष पर्यन्त मौन होकर जीवन्मुक्त और निर्मल भात्मा हो विचरा सौ वर्ष पर्यन्त विद्याधर होकर विद्याघरों में विचरा, उसके मनन्तर और पञ्च- युग बीतकर इन्द हुमा तब देवता उसे नमस्कार करते थे। रामजी ने श्वा हे भगवन ! देश काल और मनादिक प्रतिभा उसको भनियत भनि- -