पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७९०

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७८२ योगवाशिष्ठ यमकेसे भासित हुई वशिष्ठजीबोले, हेरामजी। वित्त सर्वात्मरूप है,जैसा जैसा उसमें फुरना होता है तैसा ही भासता है। जैसे जैसे देश काल का फुरना होता है तैसे ही अनुभव होता है । हे रामजी ! जितना प्रपञ्च है वह मनोमात्र है। जैसा फरना तीन होता है तैसे ही अनुभवसचा में भासित हो वहाँ स्थित होता है। जब भोर भ्रम में गया तो नियम के अनु- सार तेसे ही होताजाता है। जोमवानी होता है उसको वासना से नाना प्रकार का जगत् भासता है और जो ज्ञानवान होता है वह सब भात्मा को देखता है, उसका फुरना भी अफुरना है और वासना भी भवासना है। बीतव मुनीश्वर ने चित्त के फुरने से इतना देखा परन्तु स्वस्थरूप था इससे उसकी वासना भी भवासना थी। जैसे भुना बीज नहीं उगता तेसे ही उसकी वासना भी प्रवासना थी भोर भ्रान्ति का कारण न था। फिर कल्पपर्यन्त वह चन्द्रधार सदाशिवजी का गण हो समस्त विद्याओं का नाता और सर्वत्र त्रिकालदर्शी जीवन्मुक्त होकर विचरा । हे रामजी। जैसा किसी का संस्सकार दृढ़ होता है तैसा ही उसको अनुभव होता है। जैसे वीतव चित्त को स्पन्द करके जीवन्मुक्ति का अनुभव करता था। रामजी ने पूछा, हे भगवन् ! जो ऐसे हैं तो जीवन्मुक्ति के मत में बन्ध मोक्ष हुमा ? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी ! जीवन्मुक्ति को सब ब्रह्मस्वरूप भासता हे बन्ध मोक्ष भवस्या उसमें कहाँ है ? बानमात्र भाकाश में जैसा फुरना होता है तैसा ही भासता है। हे भङ्ग ! यह सब चिन्मात्रस्वरूप है और जगत् नाना प्रकार का मन से भासता है, वास्तव में न जगत् है, न अजगत् है, केवल ब्रह्मसत्ता स्थित है। जगत् में भूत भविष्यत् केवल ब्रह्मसत्ता भासती है। चिन्मात्र से भिन्न जगत् मन के फरने से भासता है जिनको ऐसा बान नहीं उनको जगत् वज्रसार से भी हद हो भासता है और ज्ञानवान् को भाकाशवत् भासता है । हे रामजी! भवान से मन उपजा है उससे सम्पूर्ण जगत् हुमा है वास्तव में और कुछ नहीं। जैसे समुद्र में तरङ्ग और उखास होते हैं तैसे ही चिदाकाश में भाकर भासते हैं। जब चित्त अचित्त हो जाता है तब कुछ देत नहीं भासता। इति श्रीयोग उपशम बीतवमनोयनवर्णननामाशीतितमस्सर्गः॥८॥