पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७९२

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. ७८१ योगवाशिष्ठ। शरीर को उसने निकाला जैसे समुद्र के तीरे भीह की तन्तु को कीड़ा पाते हैं तैसे ही पर्वत की कन्दरा से उस शरीर को निकाल गला। तब मुनीश्वर ने पुर्यष्टका से उस शरीर में प्रवेश किया-जैसे पक्षी भाकात मार्ग से उड़ता-उड़ता पालय में मा प्रवेश करे। सावधान होकर भरण को नमस्कार किया और अरुण ने भी वीतव को नमस्कार किया और अपने-अपने कार्य की भोर हुए। अरुण तो भाकाशमार्ग को गया और मुनीश्वर का शरीर कीचड़ से भरा हुषा था इससे उसने तालाब पर जाकर डुबकी मारी और जैसे हाथी मल धोता हे तेसे ही स्नान करके सन्ध्यादिक कर्म किये और सूर्य भगवान का पूजन किया। जैसे प्रथम तप से शरीर शोभता था तैसे ही भूषित किया और मैत्री, समता, सत्, मुदिता मादिक गुणों से सम्पन्न होकर ब्रह्मलक्ष्मी से सुशोभित हुमा और सबके भङ्ग से रहित भी रहा कि इन गुणों को भी स्वरूप में स्पर्श न करे पौर भापको शुद्ध स्वरूप जाने । इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे वीतवसमाधियोगोपदेशो नामेकाशीतितमस्सर्गः॥८॥ वशिष्ठजी बोले, हे रामजी । इस प्रकार जब कुछ दिन व्यतीत हुए तब समाधि के निमित्त मुनीश्वर का मन उदय हुमा भौर विन्ध्याचल पर्वत की कन्दरा में जा बैठा। पूर्व जो विचार अभ्यास किया था मौर परावर परमात्मादृष्टि हुई थी उससे फिर चित्त को कहा कि हे चित्त भोर इन्द्रियो । मैंने तुम्हारा पूर्व प्रहार कर जोड़ा है। अब तुम्हारे अचित्त में अर्थ अनर्थ कोई नहीं, क्योंकि अस्ति नास्ति कलना मेरी नष्ट हुई है। अस्ति नास्ति के पीछे जो शेष रहता है उसमें स्थित हूँ। जैसे पहाड़ का शृंग अचल होता है तेसे ही अचल हूँ। सदा उदयरूपमात्मा की नाई स्थित हूँ और सदा वानस्वरूप प्रकाशवान हूँ। असत् की नाई इस प्रकार कि सदा प्रक्रियरूप हूँ और असत्रूप उदय की नाई स्थित हूँ। असत् इस प्रकार से मन इन्द्रियों का विषय नहीं भोर उदय की नाई इस कारण से कि सबका साथीभूत हूँ और सदा समरस प्रकाशरूप अपने भाप में स्थित हूँ । प्रबुद्ध और सुषुतिविषय स्थित हूँ। प्रबुद्ध इस कारण कि जो -