पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

उपशम प्रकरण इन्द्रियों के विषय की उपलब्धि करता हूँ भोर सुषुप्ति इस कारण कि हर्ष, शोक, इष्ट, भनिष्ट से रहित और जगत् की भोर से सुषुप्तिवत् समाधि में स्थित हूँ भोर स्वरूप में जाग्रत हुमा तुरीया पद प्रात्मतत्व में स्थित हूँ। जैसे किसी स्थान में खंभ स्थित होता है तैसे ही स्थितरूप नित्य, शुद्ध, समानसचा जो भात्मपद हे वहाँ मैं निरामय स्थित हूँ। हे रामजी! इस प्रकार ध्यान करता हुमा वह मुनीश्वर ध्यान में लगा और छः दिन तक ध्यान में रहा और फिर जब जगा तो उस काल कोषण के समान जाना जैसे सोया हुआ पण में जागे । इसी प्रकार वीतव शुद्धपद को पाप हुमा और जीवन्मुक्त होकर चिरकाल पर्यन्त विचरता रहा । न कोई वस्तु उमे हर्ष देभोर न शोक दे, चलता हुमा भी स्थित रहे और इन्द्रियों का व्यव- हार करता भी इष्ट-मनिष्ट की प्राप्ति में समरहे-कदाचित् किसी से चलाय- मान न हो। वह चलता बैठता मन मोर इन्दियों से कहे, हे इन्द्रियो । मरो। हे मन ! अब तू समवान हुमा है और भात्मा को पाकर अब देख तुझको क्या सुख है । जिस सुख के पाये से और पाने योग्य कुछ नहीं रहता, वह निरोग सुख है । ऐसा जो परमशान्तरूप प्रवल सुख हे तिसका माश्रय करके चञ्चलता को त्याग और हे इन्द्रियो ! तुम्हारा वास्तव में कुछ स्वरूप नहीं भोर भात्मपद में तुम दृष्टि नहीं पाती। अपने स्वरूप के जाने बिना तुम मुझको दुःख देती थीं, अब मैं अपने स्वरूप को प्राप्त हुमा हूँ और अब तुम मुझे वश नहीं कर सकती, क्योंकि तुम भवस्तु- रूप होमात्मा के प्रमाद से तुम्हारा भान होता है। जैसे रस्सी में सर्प भासता है वैसे ही पात्मा में जो भनात्म भावना और मनात्मा में प्रात्म- भावना होती है सो भविचार से होती है भोर विचार किये से नहीं होती। अब विचार करके यह भ्रम निवृत्त हुमा है, तुम इन्द्रियगण और हो, महंकार और है ब्रह्म और कर्तृत्व और है, भोक्तृत्व और है । और का दुःख भाप में मानना यही मूर्खता है । जैसे बन की लकड़ीभोर है, बाँस मोर और चर्म मौर है जिसमे स्थ बनता है और लोहा, पीतल और कडे जिनसे रथ जड़ा जाता है सोसर भिन्न-भिन्न हैं और बैल जो स्थको चलाता है सो भी जुदा है, इन सबसे स्व बनता है और जैसे गृह का -