पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७९८

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योगवाशिष्ठ। है ऐसे भाकाश से निर्मल पद को बीतव मुनीश्वर प्राप्त हुभा। इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमपकरणे वीतवनिर्वाणयोगोपदेशो नाम त्र्यशीतितमस्सर्गः॥३॥ वशिष्ठजी बोले, हे रामजी ! दुःखरूप संसारसमुद्र के पार हो वीतव मुनीश्वर उस परमपद को प्राप्त हुमा जिस पद के प्राप्त हुए जीव फिर जन्ममरण को नहीं पाता और जिस पद में स्थित हुभा परमशान्त उपशम भानन्द को प्राप्त होता है-जैसे समुद्र में पड़ी हुई बुन्द समुद्र हो जाती है तैसे ही ब्रह्मसमुद्र में वह ब्रह्म हो गया और शरीर जो था वह विरस होकर गिर पड़ा जैसे शीतकाल में वृक्षों के सूखे पत्र गिर पड़ते हैं। शरीररूपी वृक्ष में हृदयरूपी पालय था और उसमें प्राणरूपी पक्षी रहता था सो चिदाकाश में प्राप्त हुभा जैसे गोफन मे पत्थर धावता है तेसे ही जो प्राप्त हुआ और अपने स्वरूप में स्थित हुमा । हे रामजी ! यह मैंने वीतव की कथा तुझको सुनाई है सो अनन्त विचारकर युक्त है। इस प्रकार विचारकर वीतव विश्रामवान् हुमा है। तुम भी उसको विचारकर सिद्धता के सार को प्राप्त हो और दृश्य की चिन्तना को त्याग के सावधान हो। हे रामजी ! जो कुछ मैंने तुझसे पूर्व कहा है कि उस पद में प्राप्त हुमा फिर कुछ पाने योग्य नहीं रहता और अब जो कुछ कहता हूँ और जो कुछ पीछे कहूँगा उमको विचारो। मुक्ति ज्ञान ही से होती है और ज्ञान ही मे सब दुःख नष्ट होते हैं, जान ही से अज्ञान निवृत्ति होता और अज्ञान ही मे परम सिद्धता को प्राप्त होता है । पाने योग्य यही वस्तु है, और कोई दुःखों कानाश नहीं कर सकता। यह निश्चय है कि ज्ञान से सब फाँसी कट जाती है औरबान ही से चीतव ने मन को चूर्ण किया । हे रामजीवीतव की संवित् जगत् के प्रतीत हो गई। जो कुछ दुःख हे वह मन से होता है और मन के उपशम हुए सब जगत् अनुभवरूप हो जाता है। वीतव भी मनो- मात्र था, मैं भी मनोमात्र हूँ, तू भी मनोमात्र है और पृथ्वी भादि जगत् भी सब मनोमात्र है, मन से मित्र कुछ नहीं । जहाँ मन होता है वहाँ जगत् होता है, मन ही जगतरूप है भोर जगत् ही मनरूप है। जो जानवान् पुरुष है वह मन की दशा को त्याग के केवल चिदानन्द यात्म-