पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/८०

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योगवाशिष्ठ।

सुन्दर वीणा लिये और श्याममूर्ति व्यासजी नाना प्रकार के रंग से रञ्जित वस्त्र पहिने हुए मानो तारागणों में महाश्यामघटा आई है विराजमान थे। ऐसे ही दुर्वासा, वामदेव, पुलह, पुलस्त्य, बृहस्पति के पिता आङ्गिरा, भृगु और मैं भी वहाँ था और ब्रह्मर्षि, राजर्षि, देवर्षि, देवता, मुनीश्वर सब आके उस सभा में स्थित हुए। किसी की बड़ी जटा, कोई मुकुट पहिरे, कोई रुद्राक्ष की माला और कोई मोती की माला पहिने थे, किसी के कण्ठ में रत्न की माला और हाथ में कमण्डलु भोर मृगछाला, किसी के महासुन्दर वस्त्र, किसी की कटि पै कोपीन और किसी की कटिपे सुवर्ण की जंजीर थीं। ऐसे बड़े-बड़े तपस्वी जो वहाँ आके बैठे थे उनमें कोई राजसी और कोई सात्त्विक स्वभाव के थे और सब विद्धान वेद के पढ़नेवाले प्राप्त हुए। कोई सूर्यवत्, कोई चन्द्रमावत् कोई तारावत् कोई रत्नवत् प्रकाशमान और पुरुषार्थ पर यत्न करने वाले यथायोग्य आसन पर स्थित हुए। मोहनीमूर्ति और दीन स्वभाववाले रामजी भी हाथ जोड़ के सभा में बैठे और उनकी सब पूजाकर कहने लगे कि हे रामजी! तुम धन्य हो। नारद सबके सम्मुख कहने लगे कि हे रामजी! तुमने बड़े विवेक और वैराग्य के वचन कहे जो सबको प्यारे लगे और सबके कल्याण करनेवाले और परम बोध के कारण हैं। हे रामजी! तुम बड़े बुद्धिमान् और उदारात्मा दृष्टि आते हो और महावाक्य का अर्थ तुमसे प्रकट होता है। ऐसे उज्ज्वलपात्र साधु और अनन्त तपस्वियों में कोई विरला होता है। जितने मनुष्य हैं वे सब पशु से दृष्टि आते हैं, क्योंकि जिसको संसार समुद्र के पार होने की इच्छा है और जो पुरुषार्थ पर यत्न करता है वही मनुष्य है। हे साधो! वृक्ष तो बहुत होते हैं, परन्तु चन्दन का वृक्ष कोई होता है वैसे ही शरीर धारी बहुत हैं परन्तु ऐसा विद्वान् कोई विरला ही होता है और सब अस्थि मांस रुधिर के पुतले से मिले हुए भटकते फिरते हैं। जैसे तन्त्र की पुतली होती है वैसे ही अज्ञानी जीव है। हाथी तो बहुत हैं परन्तु विरले के मस्तक से मोती निकलता है वैसे ही मनुष्य तो बहुत हैं, परन्तु पुरुषार्थ पर यत्न करनेवाला कोई विरला ही होता है। जैसे वृक्ष बहुतेरे हैं परन्तु लवङ्ग का वृक्ष कोई बिरला ही होता